- शरद जोशी
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आज तुम्हारे आगमन
के चतुर्थ दिवस पर यह प्रश्न बार-बार मन में घुमड़ रहा है- तुम कब जाओगे, अतिथि?
तुम जहाँ बैठे निस्संकोच सिगरेट का धुआँ फेंक
रहे हो, उसके ठीक सामने एक कैलेंडर है। देख रहे हो ना! इसकी तारीखें अपनी सीमा में
नम्रता से फड़फड़ाती रहती हैं। विगत दो दिनों से मैं तुम्हें दिखाकर तारीखें बदल
रहा हँ। तुम जानते हो, अगर तुम्हें हिसाब लगाना आता है कि यह चौथा दिन
है, तुम्हारे सतत् आतिथ्य का चौथा भारी दिन! पर तुम्हारे जाने की
कोई संभावना प्रतीत नहीं होती। लाखों मील लंबी यात्रा करने के बाद वे दोनों
एस्ट्रानॉट्स भी इतने समय चाँद पर नहीं रुके थे, जितने समय तुम एक छोटी-सी यात्रा कर मेरे घर आए
हो। तुम अपने भारी चरण-कमलों की छाप मेरी ज़मीन पर अंकित कर चुके, तुमने एक अंतरंग निजी संबंध मुझसे स्थापित कर लिया, तुमने मेरी आर्थिक सीमाओं की बैंजनी चट्टान देख ली, तुम मेरी काफी मिट्टी खोद चुके। अब तुम लौट जाओ, अतिथि! तुम्हारे जाने के लए यह उच्च समय अर्थात् हाईटाइम है। क्या तुम्हें
तुम्हारी पृथ्वी नहीं पुकारती?
उस दिन जब तुम आए थे, मेरा हृदय किसी अज्ञात आशंका से धड़क उठा था। अंदर-ही-अंदर कहीं मेरा बटुआ
काँप गया। उसके बावजूद एक स्नेह-भीगी मुसकराहट के साथ मैं तुमसे गले मिला था और
मेरी पत्नी ने तुम्हें सादर नमस्ते की थी। तुम्हारे सम्मान में ओ अतिथि, हमने रात के भोजन को एकाएक उच्च-मध्यम वर्ग के डिनर में बदल दिया था। तुम्हें
स्मरण होगा कि दो सब्जियों और रायते के अलावा हमने मीठा भी बनाया था। इस सारे
उत्साह और लगन के मूल में एक आशा थी। आशा थी कि दूसरे दिन किसी रेल से एक शानदार
मेहमाननवाजी की छाप अपने हृदय में ले तुम चले जाओगे। हम तुमसे रुकने केलिए आग्रह
करेंगे, मगर तुम नहीं मानोगे और एक अच्छे अतिथि की तरह चले जाओगे। पर ऐसा नहीं हुआ!
दूसरे दिन भी तुम अपनी अतिथि-सुलभ मुसकान लिए घर में ही बने रहे। हमने अपनी पीड़ा
पी ली और प्रसन्न बने रहे। स्वागत-सत्कार के जिस उच्च बिंदु पर हम तुम्हें ले जा
चुके थे, वहाँ से नीचे उतर हमने फिर दोपहर के भोजन को लंच की गरिमा प्रदान की और रात्रि
को तुम्हें सिनेमा दिखाया। हमारे सत्कार का यह आखिरी छोर है, जिससे आगे हम किसी के लिए नहीं बढे़। इसके तुरंत बाद भावभीनी विदाई का वह भीगा
हुआ क्षण आ जाना चाहिए था, जब तुम विदा होते और हम तुम्हें स्टेशन तक
छोड़ने जाते। पर तुमने ऐसा नहीं किया।
तीसरे दिन की सुबह तुमने मुझसे कहा, मैं धोबी को कपड़े देना चाहता हूँ। यह आघात अप्रत्याशित था और इसकी चोट
मार्मिक थी। तुम्हारे सामीप्य की वेला एकाएक यों रबर की तरह खिंच जाएगी, इसका मुझे अनुमान न था। पहली बार मुझे लगा कि अतिथि सदैव देवता नहीं होता, वह मानव और थोडे़ अंशों में राक्षस भी हो सकता है।
किसी लाण्ड्री पर दे देते हैं, जल्दी धुल जाएँगे, मैंने कहा। मन-ही-मन एक विश्वास पल रहा था कि
तुम्हें जल्दी जाना है।
‘कहाँ है लॉण्ड्री?’
‘चलो चलते हैं।’ मैंने कहा और अपनी सहज बनियान पर औपचारिक कुर्ता डालने लगा।
‘कहाँ जा रहे हैं?’ पत्नी ने पूछा।
‘इनके कपड़े लॉण्ड्री पर देने हैं।’ मैंने कहा।
मेरी पत्नी की आँखें एकाएक
बड़ी-बड़ी हो गईं। आज से कुछ बरस पूर्व उनकी ऐसी आँखें देख मैंने अपने अकेलेपन की यात्रा
समाप्त कर बिस्तर खोल दिया था। पर अब जब वे ही आँखें बड़ी होती हैं तो मन छोटा होने
लगता है। वे इस आशंका और भय से बड़ी हुई थीं कि अतिथि अधिक दिनों ठहरेगा। और आशंका
निर्मूल नहीं थी, अतिथि! तुम जा नहीं रहे। लॉण्ड्री पर दिए कपडे़ धुलकर आ गए और तुम
यहीं हो। तुम्हारे भरकम शरीर से सलवटें पड़ी चादर बदली जा चुकी और तुम यहीं हो। तुम्हें
देखकर फूट पड़नेवाली मुसकराहट धीरे-धीरे फीकी पड़कर अब लुप्त हो गई है। ठहाकों के रंगीन
गुब्बारे, जो कल तक इस कमरे के आकाश में उड़ते थे, अब दिखाई नहीं पड़ते। बातचीत की
उछलती हुई गेंद चर्चा के क्षेत्र के सभी कोनलों से टप्पे खाकर फिर सेंटर में आकर चुप
पड़ी है। अब इसे न तुम हिला रहे हो, न मैं। कल से मैं उपन्यास पढ़ रहा हूँ और तुम फ़िल्मी
पत्रिका के पन्ने पलट रहे हो। शब्दों का लेन-देन मिट गया और चर्चा के विषय चुक गए।
परिवार, बच्चे, नौकरी, फि़ल्म, राजनीति, रिश्तेदारी, तबादले, पुराने दोस्त, परिवार-नियोजन,
मँहगाई, साहित्य और यहाँ तक कि आँख मार-मारकर हमने पुरानी प्रेमिकाओं का भी जिक्र कर
लिया और अब एक चुप्पी है। सौहार्द अब शनैः-शनैः बोरियत में रूपांतरित हो रहा है। भावनाएँ
गालियों का स्वरूप ग्रहण कर रही हैं, पर तुम जा नहीं रहे। किस अदृश्य गोंद से तुम्हारा
व्यक्तित्व यहाँ चिपक गया है, मैं इस भेद को सपरिवार नहीं समझ पा रहा हूँ। बार-बार
यह प्रश्न उठ रहा है- तुम कब जाओगे, अतिथि?
कल पत्नी ने धीरे से पूछा था, ‘कब तक
टिकेंगे ये?’
मैंने कंधे उचका दिए, ‘क्या कह
सकता हूँ!’
'मैं तो आज खिचड़ी बना रही हूँ। हलकी रहेगी।’
‘बनाओ।’
सत्कार की उष्मा समाप्त हो रही थी। डिनर से चले
थे, खिचड़ी पर आ गए। अब भी अगर तुम अपने बिस्तर को गोलाकार रूप नहीं प्रदान करते
तो हमें उपवास तक जाना होगा। तुम्हारे-मेरे संबंध एक संक्रमण के दौर से गुज़र रहे
हैं। तुम्हारे जाने का यह चरम क्षण है। तुम जाओ न अतिथि!
तुम्हें यहाँ अच्छा लग रहा है न! मैं जानता
हूँ। दूसरों के यहाँ अच्छा लगता है। अगर बस चलता तो सभी लोग दूसरों के यहाँ रहते, पर ऐसा नहीं हो सकता। अपने घर की महत्ता के गीत इसी कारण गाए गए हैं। होम को
इसी कारण स्वीट-होम कहा गया है कि लोग दूसरे के होम की स्वीटनेस को काटने न
दौडे़ं। तुम्हें यहाँ अच्छा लग रहा है, पर सोचो प्रिय, कि शराफत भी कोई चीज़ होती है और गेट आउट भी एक वाक्य है, जो बोला जा सकता है।
अपने खर्राटों से एक और रात गुंजायमान करने
केबाद कल जो किरण तुम्हारे बिस्तर पर आएगी वह तुम्हारे यहाँ आगमन के बाद पाँचवें
सूर्य की परिचित किरण होगी। आशा है, वह तुम्हें चूमेगी और तुम घर लौटने का
सम्मानपूर्ण निर्णय ले लोगे। मेरी सहनशीलता की वह अंतिम सुबह होगी। उसके बाद मैं
स्टैंड नहीं कर सकूँगा और लड़खड़ा जाऊँगा। मेरे अतिथि, मैं जानता हूँ कि अतिथि देवता होता है, पर आखिर मैं भी मनुष्य हूँ। मैं कोई तुम्हारी
तरह देवता नहीं। एक देवता और एक मनुष्य अधिक देर साथ नहीं रहते। देवता दर्शन देकर
लौट जाता है। तुम लौट जाओ अतिथि! इसी में तुम्हारा देवत्व सुरक्षित रहेगा। यह
मनुष्य अपनी वाली पर उतरे, उसके पूर्व तुम लौट जाओ! उफ, तुम कब जाओगे, अतिथि?
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द्वारा :-
hindiCBSE.com
आभार: एनसीइआरटी (NCERT)
Sparsh Part-1 for Class 9 CBSE