एक फूल की चाह

 - सियारामशरण गुप्त



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उद्वेलित(छलका) कर अश्रु-राशियाँ (आँसुओं की झड़ी),
हृदय-चिताएँ धधकाकर(हृदय के दुःख को बढ़ाकर)
महा महामारी(विस्तृत क्षेत्र में फैलनेवाली बीमारी)  प्रचंड(भयंकर रूप धारण करके) हो 
फैल रही थी  इधर-उधर(चारों तरफ फैल रही थी)
क्षीण-कंठ(गले में से आवाज़ का न निकल पाना) मृतवत्साओं (माएँ जिनकी संतान मर गई हों)
करुण रुदन(दिल को द्रवित करनेवाला रोना) दुर्दांत(हृदय विदारकहृदय को दुःखी करने वाला) नितांत(पूरी तरह से),
भरे हुए था निज(अपने) कृश(क्षीणकमज़ोर) रव(स्वर) में
हाहाकार(कोहरामदुःख के कारण हाय-हाय की पुकार) अपार(असीमित) अशांत।

            बहुत रोकता था सुखिया(बेटी का नाम) को,
            ‘न जा खेलने को बाहर’,
            नहीं खेलना रुकता उसका
            नहीं ठहरती वह पल-भर।
            मेरा हृदय काँप उठता था(पुत्री के महामारी की चपेट में आने की आशंका का भय मन में आता था),
            बाहर  गई  निहार(देख)  उसे,
            यही मनाता(मन में प्रार्थना करता) था कि बचा लूँ
            किसी भाँति (किसी तरह से भी) इस बार उसे।

भीतर जो डर रहा छिपाए(मन में डर समाया हुआ था कि कहीं बेटी महामारी की चपेट में न आ जाए),
हाय!  वही  बाहर  आया। (दुःख: है कि वैसा ही प्रत्यक्ष हो गया) 
एक दिवस(दिन) सुखिया(बेटी का नाम) के तनु(शरीर) को
ताप - तप्त (बुखार में गर्म)   मैंने   पाया।
ज्वर(बुखार) में विह्वल(बेचैनव्याकुल)) हो बोली वह,
क्या जानूँ किस डर से डर(पता नहीं किस अनजाने डर के कारण),
मुझको देवी के प्रसाद का(देवी पर चढ़ा फूल)
एक फूल  ही  दो  लाकर।

            क्रमशः कंठ(गला) क्षीण(आवाज नहीं निकली) हो आया,
            शिथिल(शक्ति से हीन) हुए अवयव(शरीर के अंग) सारे,
            बैठा था नव-नव(नए-नए) उपाय की
            चिंता  में  मैं  मनमारे(उपाय न मिलने के कारण निराश होकर)
            जान सका न प्रभात सजग (सभी को जगा देनेवाली सुबह)
            हुई  अलस(आलस्य से भरीठहरना)  कब  दोपहरी,
            स्वर्ण-घनों (सूर्य की किरणों के प्रभाव से सोने जैसे रंग के दिखनेवाले बादलों) में कब रवि डूबा(सूर्यास्त),
            कब आई  संध्या गहरी (शाम का और गहरा जाना अर्थात रात का होना)

सभी ओर(चारों तरफमन के भीतर और बाहर प्रकृति में) दिखलाई दी बस,
अंधकार  की  ही  छाया(छाया अँधेरा निराशा पैदा कर रहा था)
छोटी-सी बच्ची को ग्रसने(खानेलीलनेनिगलने)
कितना बड़ा तिमिर(विशाल अंधकार) आया!
ऊपर विस्तृत(विस्तार से फैले हुए) महाकाश(विशाल आकाश) में
जलते-से  अंगारों  से (जलते हुए अंगारों की तरह),
झुलसी-सी(जैसे जलने के कारण काली पड़ गई हों ऐसी) जाती थी आँखें
जगमग जगते तारों से।

            देख रहा थाजो सुस्थिर हो
            नहीं बैठती थी क्षण-भर(एक पल के लिए भी),
            हाय! वही चुपचाप पड़ी थी
            अटल(कभी समाप्त न होनेवाली) शांति-सी(ख़ामोशी) धारण कर(अपनाकर)
            सुनना वही चाहता था मैं
            उसे स्वयं ही उकसाकर(प्रेरित करके)-
            मुझको देवी के प्रसाद का
            एक फूल ही दो लाकर!

ऊँचे शैल-शिखर(पहाड़ की चोटी) के ऊपर
मंदिर था विस्तीर्ण(बड़े क्षेत्र में फैला हुआ) विशाल(आकार में बड़ा),
स्वर्ण-कलश (मंदिर के शिखर पर बने सोने के कलश) सरसिज(कमल) विहंसित(खिले हुए) थे
पाकर समुदित(प्रसन्नता से)  रवि-कर-जाल (सूरज की किरणों के समूह)
दीप-धूप  से  आमोदित(प्रसन्नता से पूर्ण) था
मंदिर  का  आँगन  सारा,
गूँज  रही  थी  भीतर-बाहर
मुखरित(मुहँ से प्रकट) उत्सव की  धारा।

            भक्त-वृंद(भक्तों के समूह) मृदु-मधुर(मन को अच्छा लगनेवाले) कंठ
            गाते थे सभक्ति(भक्ति की भावना के साथ) मुद-मय(प्रसन्नता में डूबकर),-
            ‘पतित-तारिणी(पापियों को मुक्तिदेने वाली) पाप-हारिणी(पापों को दूर करनेवाली),
            मातातेरी जय-जय-जय!
            ‘पतित-तारिणीतेरी जय-जय’-
            मेरे मुख (मुँह) से भी निकला,
            बिना बढ़े ही मैं आगे को
            जाने किस बल से ढिकला(धक्का देना)!

मेरे दीप-फूल(दीपक और फूल) लेकर वे
अंबा (देवी माता)  को  अर्पित (चढ़ाना) करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
आगे को अंजलि (दोनों हथेलियों को जोड़कर बनी मुद्रा)  भरके,
भूल गया उसका लेना झट,
परम(सर्वोत्तम) लाभ-सा  पाकर मैं।
सोचा,- बेटी को माँ के ये
पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।
सिंहपौर(मुख्य-द्वार) तक भी आँगन से
नहीं  पहुँचने  मैं  पाया,
सहसा(अचानक) यह सुन पड़ा कि- ‘कैसे
यह अछूत(न छूने के योग्य) भीतर  आया?
पकड़ोदेखो भाग न जावे,
बना  धूर्त (बेईमान)  यह है कैसा
साफ-स्वच्छ परिधान(पहनने के वस्त्र) किए है,
भले (अच्छे) मानुषों (मनुष्यों) के  जैसा!

            पापी ने  मंदिर में  घुसकर
            किया  अनर्थ  बड़ा  भारी(भयंकर),
            कलुषित(कलंकितअपवित्र) कर दी है मंदिर की
            चिरकालिक(अनादिकाल से बनी हुई) शुचिता(पवित्रता)सारी।
            ऐंक्या मेरा कलुष(कलंक,दोष) बड़ा है
            देवी की  गरिमा(गौरवमन-सम्मान)  से भी,
            किसी बात में हूँ मैं आगे
            माता की महिमा (प्रभावमहत्वगौरव) के  भी?

माँ के भक्त हुए तुम कैसे,
करके  यह  विचार  खोटा(बुरा)?
माँ के सम्मुख(सामने) ही माँ का तुम
गौरव(मान) करते  हो  छोटा!
कुछ न सुना भक्तों नेझट से
मुझे घेरकर पकड़ लिया,
मार-मारकर   मुक्के-घूँसे
धम-से  नीचे  गिरा  दिया!

            मेरे हाथों  से  प्रसाद  भी
            बिखर गया हा! सबका सब,
            हाय! अभागी(भाग्यहीन) बेटी तुझ तक
            कैसे पहुँच सके यह अब।
            न्यायालय ले गए मुझे वे,
            सात दिवस का दंड-विधान(सात दिन का कारावास दिया गया)
            मुझको हुआहुआ था मुझसे
            देवी  का  महान  अपमान!
  
मैंने स्वीकृत किया दंड वह
शीश झुकाकर चुप ही रह,
उस असीम अभियोग(भयंकर दोष जो लगाया गया)दोष(किये पाप) का  
क्या उत्तर देताक्या कह?
सात रोज़(दिन) ही रहा जेल में
या कि वहाँ सदियाँ बीतीं(जैसे सैंकड़ो साल बीत गए हों),
अविश्रांत(बिना रूके) बरसा करके भी
आँखें तनिक  नहीं  रीतीं(खाली  नहीं हुई)

            दंड भोगकर जब मैं छूटा,
            पैर न उठते थे घर को,
            पीछे ठेल(धक्का) रहा था कोई
            भय-जर्जर (डर से पूर्ण एवं कमज़ोर) तनु पंजर(अस्थियों के ढाँचे मात्र शरीर को) को।
            पहले की-सी लेने मुझको
            नहीं  दौड़कर  आई  वह,
            उलझी हुई खेल में ही हा!
            अबकी दी न दिखाई वह।

उसे देखने  मरघट(शमशान) को ही
गया  दौड़ता  हुआ  वहाँ,
मेरे परिचित बंधु प्रथम ही
फूँक  चुके थे उसे जहाँ।
बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर
छाती  धधक  उठी(भयंकर दुःख का अनुभव करना)  मेरी,
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची
हुई राख  की  थी  ढेरी!(राख  में बदल चुकी थी)

            अंतिम बार गोद में बेटी,
            तुझको ले न सका मैं हा!
            एक फूल माँ का प्रसाद भी
            तुझको दे न सका मैं हा!



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द्वारा :- hindiCBSE.com
                                     आभार: एनसीइआरटी (NCERT) Sparsh Part-1 for Class 9 CBSE