हिंदी-कविता की सबसे सुंदर पंक्तियों में से एक यह है -
‘जिसके कारण धूलि भरे हीरे कहलाए।’
हीरे के प्रेमी तो शायद उसे साफ सुथरा, खरादा हुआ, आँखों में चकाचौंध पैदा करता हुआ देखना पसंद करेंगे। परंतु हीरे से भी कीमती जिस नयन-तारे(बहुत प्रिय अर्थात् बच्चे) का जिक्र इस पंक्ति में किया गया है वह धूलि भरा (धूल में सना) ही अच्छा लगता है। जिसका बचपन गाँव के गलियारे (गलियों) की धूल में बीता हो, वह इस धूल के बिना किसी शिशु की कल्पना कर ही नहीं सकता। फूल के ऊपर जो रेणु (मिट्टी) उसका शृंगार (सजावट) बनती है, वही धूल शिशु के मुँह पर उसकी सहज (स्वभाविक) पार्थिवता (पृथ्वी से जुड़ाव) को निखार (और साफ करना) देती है।अभिजात (कुलीन) वर्ग ने प्रसाधन-सामग्री (सौन्दर्य बढ़ानेवाली वस्तुएँ) में बड़े-बड़े आविष्कार किए, लेकिन बालकृष्ण (कृष्ण के समान बालक) के मुँह पर छाई हुई वास्तविक गोधूलि (शाम को घर लौटती गायों के खुरों की छुअन से उड़ी धूल) की तुलना में वह सभी सामग्री क्या धूल(महत्त्वहीन) नहीं हो गई?
हमारी सभ्यता इस धूल के संसर्ग (साथ) से बचना चाहती है। वह आसमान में अपना घर बनाना चाहती है(कई मंजिलों वाले फ्लैट में ऊपर के हिस्से में), इसलिए शिशु भोलानाथ से कहती है, धूल में मत खेलो। भोलानाथ के संसर्ग (साथ) से उसके नकली (दिखावटी) सलमे-सितारे (सजावट के सामान) धुँधले (चमक कम हो जाना) पड़ जाएँगे। जिसने लिखा था-‘धन्य-धन्य वे हैं नर (मनुष्य) मैले जो करत गात (शरीर) कनिया (गोदी) लगाय (लगाकर) धूरि (मिट्टी) ऐसे लरिकान (लड़कों) की,’ उसने भी मानो धूल भरे हीरों (धूल में सने बच्चों) का महत्त्व कम करने में कुछ उठा न रखा (कुछ कमी नहीं की) था। ‘धन्य-धन्य’ में ही उसने बड़प्पन (बड़ेपन) को विज्ञापित (बताना) किया, फिर ‘मैले’ शब्द से अपनी हीनभावना (संकुचित भावना) भी व्यंजित (प्रकट) कर दी, अंत में ‘ऐसे लरिकान’ कहकर उसने भेद-बुद्धि (बाँटने वाली बुद्धि) का परिचय भी दे दिया। वह हीरों (डामंड्स) का प्रेमी है, धूलि भरे हीरों (धूल में सने बच्चों) का नहीं।
शिशु भोलानाथ के संसर्ग(साथ) से तो ‘मैले जो करत गात' (जो अपना शरीर गंदा कर लेते हैं) की नौबत (स्थिति) आई, अखाड़े (कुश्ती करने का स्थान) की मिट्टी में सनी हुई देह (शरीर) से तो कहीं उबकाई (उल्टी जैसा मन) ही आने लगे। जो बचपन में धूल से खेला है, वह जवानी में अखाड़े की मिट्टी में सनने से कैसे वंचित (अलग) रह सकता है, रहता है तो उसका दुर्भाग्य (भाग्यहीनता) है और क्या! यह साधारण धूल नहीं है, वरन् तेल और मट्ठे (छाछ) से सिझाई (पकाई) हुई वह मिट्टी है, जिसे देवता पर चढ़ाया जाता है। संसार में ऐसा सुख दुर्लभ है। पसीने से तर बदन पर मिट्टी ऐसे फिसलती है, जैसे आदमी कुआँ खोदकर (खूब मेहनत करके) निकला हो। उसकी माँसपेशियाँ फूल उठती हैं, आराम से वह हरा (प्रसन्न, ताज़ा) होता है, अखाड़े में निर्द्वंद्व (जिसका विरोध करने वाला कोई न हो) चारों खाने चित्त लेटकर (अच्छी तरह शांत लेटकर) अपने को विश्वविजयी(विश्व जिसने जीत लिया हो) लगाता है। मिट्टी उसके शरीर को बनाती(मज़बूती देती) है क्योंकि शरीर भी तो मिट्टी का ही बना हुआ है।
शरीर और मिट्टी को लेकर संसार की असारता(महत्वहीनता) पर बहुत कुछ कहा जा सकता है परंतु यह भी ध्यान देने की बात है कि जितने सारतत्त्व(ज़रुरी तत्त्व) जीवन के लिए अनिवार्य(ज़रुरी) हैं, वे सब मिट्टी से ही मिलते हैं। जिन फूलों को हम अपनी प्रिय-वस्तुओं का उपमान(जिसके साथ समता की जाए) बनाते हैं, वे सब मिट्टी की ही उपज(उत्पन्न) हैं। रूप, रस, गंध, स्पर्श - इन्हें कौन संभव करता है? माना कि मिट्टी और धूल में अंतर है, लेकिन उतना ही, जितना शब्द और रस(उससे मिलने वाले आनन्द में) में, देह(शरीर) और प्राण में, चाँद और चाँदनी में। मिट्टी की आभा(चमक) का नाम धूल है और मिट्टी के रंग-रूप की पहचान उसकी धूल से ही होती है।
ग्राम-भाषाएँ अपने सूक्ष्म बोध (कम जानकारी के कारण) से धूल की जगह ग़र्द(बारीक मिट्टी अर्थात् धूल को बताने के लिए उर्दू शब्द) का प्रयोग कभी नहीं करतीं। धूल वह, जिसे गोधूलि शब्द में हमने अमर कर दिया (गोधूलि के साथ धूल शब्द के साथ जुड़ा है, जो कि हम पवित्र समय मानते हैं) है। अमराइयों (आम के बागों) के पीछे छिपे हुए सूर्य की किरणों में जो धूलि(सूर्य की किरणों में चमकती धूल) सोने को मिट्टी(सोने की चमक को महत्त्वहीन) कर देती है, सूर्यास्त के उपरांत(बाद) लीक(चलने से बने रास्ते के निशान) पर गाड़ी के निकल जाने के बाद जो रुई के बादल की तरह(हल्के और कोमल रूप में ) या ऐरावत(स्वर्ग के राजा इन्द्र के हाथी) हाथी के नक्षत्र-पथ (तारों के बीच बने स्वर्ग के रास्ते) की भाँति जहाँ की तहाँ स्थिर रह जाती है, चाँदनी रात में मेले जानेवाली गाड़ियों के पीछे (गाड़ियों के निकलने के बाद) जो कवि-कल्पना(कवि की कल्पना की तरह) की भाँति उड़ती चलती है, जो शिशु के मुँह पर, फूल की पंखुडि़यों पर साकार सौंदर्य(दिखाई देने वाली सुन्दरता) बनकर छा जाती है - धूल उसका नाम है।
गोधूलि (संध्या का वह समय जब चरने गईं गाएँ वापस अपने घर लौट रही होती हैं तब उनके खुरों के स्पर्श से धूल उड़ती है उस धूल को गोधूलि और उस समय को गोधूलि-वेला कहा जाता है। इस समय को बहुत पवित्र समय माना गया है) पर कितने कवियों ने अपनी कलम नहीं तोड़ दी(खूब लिखा है), लेकिन यह गोधूलि गाँव की अपनी संपत्ति है, जो शहरों के बाटे(हिस्से) नहीं पड़ी। एक प्रसिद्ध पुस्तक विक्रेता के निमंत्रण-पत्र में गोधूलि की बेला(समय) में आने का आग्रह(निवेदन) किया गया था, लेकिन शहर में धूल-धक्कड़ के होते हुए भी गोधूलि कहाँ? यह कविता की विडंबना(उपहास की बात) थी और गाँवों में भी जिस धूलि को कवियों ने अमर किया है, वह हाथी-घोड़ों के पग-संचालन(पैरों के हिलने) से उत्पन्न होनेवाली धूल नहीं है, वरन् गो-गोपालों के पदों(पाँवों) की धूलि है।
‘नीच को धूरि समान’ वेद-वाक्य (ज्ञान पूर्ण) नहीं है। सती उसे माथे से, योद्धा उसे आँखों से लगाता है, युलिसिस ने प्रवास से लौटने पर इथाका की धूलि चूमी थी। यूक्रेन के मुक्त होने पर एक लाल सैनिक ने उसी श्रद्धा से वहाँ भी धूल का स्पर्श किया था। श्रद्धा, भक्ति, स्नेह इनकी चरम (सबसे बड़े रूप में) व्यंजना (प्रकट करने) के लिए धूल से बढ़कर और कौन साधन है? यहाँ तक कि घृणा, असूया(ईर्ष्या) आदि के लिए भी धूल चाटने (बहुत गिड़गिड़ाना, नम्रता दिखाना), धूल झाड़ने(खुशामद करना, गन्दगी हटाने) आदि की क्रियाएँ प्रचलित हैं।
रंग बिरंगी धूल |
धूल, धूलि, धूली, धूरि आदि की व्यंजनाएँ (प्रकट करने या बताने का भाव) अलग-अलग हैं। धूल जीवन का यथार्थवादी (वास्तविकता को बतानेवाला) गद्य, धूलि उसकी कविता (कविता के समान भावों से भरा रूप) है। धूली छायावादी दर्शन (रहस्य से भरा विचार या सिद्धांत) है, जिसकी वास्तविकता (सच्चाई) संदिग्ध (सन्देह से पूर्ण) है और धूरि लोक-संस्कृति का नवीन जागरण (गाँवों में ही धूल होती है और हमारी संस्कृति का मूल ताना-बाना गाँवों के ही रीति-रिवाजों में बसा है) है। इन सबका रंग एक ही है, रूप में भिन्नता जो भी हो। मिट्टी काली, पीली, लाल तरह-तरह की होती है, लेकिन धूल कहते ही शरत् के धुले-उजले (साफ-चमकदार) बादलों का स्मरण हो आता है। धूल के लिए श्वेत (सफ़ेद) नाम का विशेषण अनावश्यक है, वह उसका सहज(स्वाभाविक) रंग है।
हमारी देशभक्ति धूल को माथे से न लगाए (महत्त्व न दे) तो कम-से-कम उस पर पैर तो रखे (स्थान छोड़कर न जाए) । किसान के हाथ-पैर, मुँह पर छाई हुई यह धूल हमारी सभ्यता से क्या कहती है? (अपनी मिट्टी से प्यार करना और इसी धरती के लोगों के लिए निःस्वार्थ मेहनत करना) हम काँच को(दिखावटी चमकदार चीजों को) प्यार करते हैं, धूलि भरे(धूल में सने) हीरे(बच्चे) में धूल ही दिखाई देती है, भीतर की कांति(चमक) आँखों से ओझल (दिखती नहीं) रहती है,लेकिन ये हीरे(बच्चे) अमर हैं और एक दिन अपनी अमरता का प्रमाण (सबूत) भी देंगे। अभी तो उन्होंने अटूट (मज़बूत) होने का ही प्रमाण दिया है- “हीरा वही घन (हथौड़े की) चोट न टूटे।’’ वे उलटकर चोट भी करेंगे और तब काँच और हीरे का भेद जानना बाकी न रहेगा। तब हम हीरे(बच्चे) से लिपटी (लगी) हुई धूल को भी माथे से लगाना(आदर देना) सीखेंगे।
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आभार: एनसीइआरटी (NCERT) Sparsh Part-2 for Class 10 CBSE