धूल : सरलार्थ

गद्यांश :- हिंदी-कविता की सबसे सुंदर पंक्तियों में से एक यह है -
              ‘जिसके कारण धूलि भरे हीरे कहलाए।’
सरलार्थ :- राष्ट्र कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त की ‘मातृभूमि’ नामक कविता में उपरोक्त पंक्तियाँ आती हैं। इसमें बताया गया है कि मातृभूमि की से प्राप्त सार-तत्वों से बच्चे का निर्माण होता है और इसी की मिट्टी में लोटकर, खेलकूद कर वह बड़ा होता है। इस मातृभूमि की मिट्टी ही है जो कि बच्चे का सर्वागींण विकास करती है और वह गुणी बनकर हीरे के समान मूल्यवान, चमकदार अर्थात् अपने गुणों के कारण प्रसिद्ध और सबका प्रिय बन जाता है। 

गद्यांश :-   हीरे के प्रेमी तो शायद उसे साफ-सुथरा, खरादा हुआ, आँखों में चकाचौंध पैदा करता हुआ देखना पसंद करेंगे। परंतु हीरे से भी कीमती जिस नयन-तारे(बहुत प्रिय अर्थात् बच्चे) का जिक्र इस पंक्ति में किया गया है वह धूलि भरा(धूल में सना) ही अच्छा लगता है। जिसका बचपन गाँव के गलियारे(गलियों) की धूल में बीता हो, वह इस धूल के बिना किसी शिशु की कल्पना कर ही नहीं सकता। फूल के ऊपर जो रेणु(मिट्टी) उसका शृंगार(सजावट) बनती है, वही धूल शिशु के मुँह पर उसकी सहज(स्वभाविक) पार्थिवता(पृथ्वी से जुड़ाव) को निखार(और साफ करना) देती है। अभिजात(कुलीन) वर्ग ने प्रसाधन(सौन्दर्य)-सामग्री में बड़े-बड़े आविष्कार किए, लेकिन बालकृष्ण(कृष्ण के समान बालक) के मुँह पर छाई हुई वास्तविक गोधूलि (शाम को घर लौटती गायों के खुरों की छुअन से उड़ी धूल) की तुलना में वह सभी सामग्री क्या धूल(महत्त्वहीन)  नहीं हो गई?
सरलार्थ :- हीरे की कीमत का अनुमान उसकी स्वच्छता, गढ़न, चमक के आधार पर तय होता है इसलिए  उसके पारखी ऐसा ही हीरा देखना पसन्द करते हैं। ऊपर आई पंक्ति में कवि हीरे के बारे में नहीं बता रहा है अपितु वह तो हीरे से भी कीमती और उससे भी ज्यादा प्रिय लगने वाले बच्चे के बारे में बता रहा है जो कि मिट्टी से भरा हुआ, उसमें खेलता हुआ ही अच्छा लगता है।  बच्चा हो और वह मिट्टी में नहीं खेले ऐसा हो ही नहीं सकता है इसलिए जिसने अपना बचपन गाँव की गलियों में मिट्टी में खेलते हुए बिताया है उसके लिए मिट्टी के बिना बच्चे की कल्पना की ही नहीं जा सकती है। फूल की सुन्दरता के पीछे मिट्टी ही होती है जिसमें वह पलकर खिलता है और यही मिट्टी उसके ऊपर लगकर उसकी सुन्दरता को और बढ़ा देती है। इसी प्रकार से मिट्टी जब बच्चे पर लग जाती है तो उस बच्चे की सुन्दरता बढ़  जाती है और साथ ही इससे उसके मिट्टी से जुड़ाव अर्थात् उसके प्रति प्रेम का भी पता चलता है। हमारे समाज में सभ्य कहे जाने वर्ग ने सुन्दरता को बढ़ाने वाले बहुत से साधनों की खोजकर उन्हें अपनाया है पर उनके ये सभी सामग्री बाल श्री कृष्ण के चेहरे पर लगी गोधूलि की तुलना में महत्वहीन दिखाई देती हैं।

गद्यांश :-   हमारी सभ्यता इस धूल के संसर्ग(साथ) से बचना चाहती है। वह आसमान में अपना घर बनाना चाहती है (कई मंजिलों वाले फ्लैट में ऊपर के हिस्से में), इसलिए शिशु भोलानाथ से कहती है, धूल में मत खेलो। भोलानाथ के संसर्ग (साथ) से उसके नकली (दिखावटी) सलमे-सितारे (सजावट के सामान)  धुँधले (चमक कम हो जाना) पड़ जाएँगे। जिसने लिखा था- ‘धन्य-धन्य वे हैं नर(मनुष्य) मैले जो करत गात(शरीर) कनिया(कण) लगाय(लगाकर) धूरि(मिट्टी) ऐसे लरिकान (लड़कों) की,’  उसने भी मानो धूल भरे हीरों(धूल में सने बच्चों) का महत्त्व कम करने में कुछ उठा न रखा(कुछ कमी नहीं की) था। ‘धन्य-धन्य’ में ही उसने बड़प्पन (बड़ेपन) को विज्ञापित(बताना) किया, फिर ‘मैले’ शब्द से अपनी हीनभावना(संकुचित भावना) भी व्यंजित(प्रकट) कर दी, अंत में ‘ऐसे लरिकान’ कहकर उसने भेद-बुद्धि(बाँटने वाली बुद्धि) का परिचय भी दे दिया। वह हीरों (डायमंड्स) का प्रेमी है, धूलि भरे हीरों(धूल में सने बच्चों) का नहीं।
सरलार्थ :-  हमारी वर्तमान सभ्यता का धूल के प्रति प्रेम दिखाई नहीं देता है क्योंकि वह इसके साथ से, इसके स्पर्श से बचना चाहती है। उनकी यह भावना इन बातों से पता लग जाती है कि वह कई मंजिलों वाले फ्लैट में ऊपर के हिस्से में अपना घर बनाना पसन्द करती है और अपने बच्चों को धूल में खेलने से मना करती है। उनका मानना है कि यदि बच्चे मिट्टी में खेलेंगे तो उनके कपड़े या अन्य सामग्री जो कि मनुष्य के द्वारा निर्मित है (प्राकृतिक नहीं है) गन्दे जायेंगे। एक कवि महोदय की पंक्तियाँ भी वर्तमान सभ्य समाज की मानसिकता को बताती है कि ‘धन्य-धन्य वे हैं नर मैले जो करत गात कनिया लगाय धूरि ऐसे लरिकान की’। इस पंक्ति का अर्थ इस प्रकार होगा कि वे मनुष्य धन्य है जिन्हें धूल में सने बच्चे को अपनी गोद में लेने का अवसर मिलता है चाहे बच्चे पर लगी धूलकणों से उसके स्वयं के कपड़े मैले क्यों न हो जाते हो। वस्तुतः इन कवि महोदय ने धूल में सने बच्चे का महत्व इन पंक्तियों में कम ही किया है उसे बढ़ाया नहीं है। बच्चे को गोद में लेने वाला भाग्यशाली होता है - यह कहकर उसने महत्व की बात तो की है पर दूसरी तरफ ‘मैले’ शब्द का प्रयोग करके उसने धूल में सने बच्चे को मैला भी बता दिया है जिसके कारण उस बच्चे को अपनी गोद में लेनेवाले व्यक्ति भी मैला हो जाता है। इसके अलावा उसने ‘ऐसे लरिकान’ यानि ऐसे लड़के कहकर बच्चों-बच्चों में भी भेद कर दिया है। बच्चों-बच्चों में भेद किए जाने के कारण यह पता लग जाता है कि जो बच्चे हीरे की तरह साफ-सुथरे होते हैं वह उन्हें ही पसन्द करता है उन्हें नहीं जो धूल में सने हुए हों।

गद्यांश :-   शिशु भोलानाथ के संसर्ग(साथ) से तो ‘मैले जो करत गात’ (जो अपना शरीर गंदा कर लेते हैं) की नौबत(स्थिति) आई, अखाड़े (कुश्ती करने का स्थान) की मिट्टी में सनी हुई देह(शरीर) से तो कहीं उबकाई(उल्टी जैसा मन) ही आने लगे। जो बचपन में धूल से खेला है, वह जवानी में अखाड़े की मिट्टी में सनने से कैसे  वंचित(अलग) रह सकता है, रहता है तो उसका दुर्भाग्य(भाग्यहीनता) है और क्या! यह साधारण धूल नहीं है, वरन् तेल और मट्ठे(छाछ) से सिझाई(पकाई) हुई वह मिट्टी है, जिसे देवता पर चढ़ाया जाता है। संसार में ऐसा सुख दुर्लभ है। पसीने से तर बदन पर मिट्टी ऐसे फिसलती है, जैसे आदमी कुआँ खोदकर(खूब मेहनत करके) निकला हो। उसकी माँसपेशियाँ फूल उठती हैं, आराम से वह हरा(प्रसन्न, ताजा) होता है, अखाड़े में निर्द्वंद्व (जिसका विरोध करने वाला कोई न हो) चारों खाने चित्त लेटकर(अच्छी तरह शांत लेटकर)अपने को विश्वविजयी(विश्व जिसने जीत लिया हो) लगाता है। मिट्टी उसके शरीर को बनाती(मजबूती देती) है क्योंकि शरीर भी तो मिट्टी का ही बना हुआ है।
सरलार्थ :- जो धूल में सने और साफ बच्चे के प्रति भेदभाव पूर्ण विचार रख मानता है कि मिट्टी में सने भोले बच्चे के साथ से तो शरीर गंदा हो जाता है वह यदि पहलवानी के स्थान अर्थात् अखाड़े की मिट्टी में सने पहलवानों के शरीर को देखेगा तो उसका मन उल्टी करने जैसा हो जाएगा। जिसने अपना बचपन मिट्टी में खेलते हुए बिताया हो उसमें मिट्टी से सने पहलवानों के प्रति घृणा नहीं होगी और युवा होकर वह भी अखाड़े में जाकर कुश्ती  करना, पहलवानी करना सीखने से स्वयं को रोक नहीं सकेगा। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो यह उसकी भाग्यहीनता ही कही जा सकती है। पहलवान अपने शरीर पर तेल की मालिश करते हैं और छाछ पीते हैं ताकि शरीर मज़बूत बनें और पहलवानी से पहले भी शरीर पर तेल लगाते हैं ताकि दूसरा पहलवान उसे मजबूती से पकड़ नहीं सके। पहलवानी या कुश्ती करनेवाले इस मिट्टी को अपने इष्ट देवता पर चढ़ाते हैं। अखाड़े की मिट्टी में सनने का सुख आसानी से सभी को प्राप्त भी नहीं होता है । पहलवान के पसीने भरे चिकने शरीर पर मिट्टी ऐसे फिसलती है जैसे कि आदमी कुआँ खोदकर अर्थात् बहुत मेहनती काम करके बाहर आ रहा हो। इसी अखाड़े की मिट्टी में उसकी माँसपेशियाँ मज़बूत होती हैं, उसका व्यक्तित्व सुन्दर बनता है और इस अखाड़े की मिट्टी में शांतभाव से लेटकर वह स्वयं विश्व को जीतनेवाले की तरह की भावना को धारण करता है। मिट्टी उसके शरीर को मज़बूती देती है क्योंकि शरीर भी इसी मिट्टी से और इसी मिट्टी में मिलनेवाली चीजों से बना है।

गद्यांश :- शरीर और मिट्टी को लेकर संसार की असारता(महत्वहीनता) पर बहुत कुछ कहा जा सकता है परंतु यह भी ध्यान देने की बात है कि जितने सारतत्त्व(जरूरी तत्त्व) जीवन के लिए अनिवार्य(जरूरी) हैं, वे सब मिट्टी से ही मिलते हैं। जिन फूलों को हम अपनी प्रिय वस्तुओं का उपमान(जिसके साथ समता की जाए) बनाते हैं, वे सब मिट्टी की ही उपज(उत्पन्न) हैं। रूप, रस, गंध, स्पर्श - इन्हें कौन संभव करता है? माना कि मिट्टी और धूल में अंतर है, लेकिन उतना ही, जितना शब्द और रस(उससे मिलने वाले आनन्द में) में,  देह(शरीर) और प्राण में, चाँद और चाँदनी में। मिट्टी की आभा(चमक) का नाम धूल है और मिट्टी के रंग-रूप की पहचान उसकी धूल से ही होती है।
सरलार्थ :- शरीर और मिट्टी के माध्यम से इस संसार की महत्वहीनता के बारे में बहुत कुछ बताया जा सकता है परन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि जीवन के लिए जितने आवश्यक तत्व हैं वे सभी हमें इसी मिट्टी से प्राप्त होते हैं। हम अपनी प्रिय वस्तुओं की सुन्दरता की तुलना फूलों की सुन्दरता से किया करते हैं , इन फूलों को सुन्दर बनाने का कार्य इसी मिट्टी के द्वारा ही तो किया जाता है। सुन्दर रूप, मधुर रस, सु-गंध और स्पर्श में कोमलता भरने का कार्य किसके द्वारा किया जाता है ? सच तो यह है कि यह सब इस मिट्टी के द्वारा ही संभव होते हैं। कहे जाने को मिट्टी और धूल में अंतर किया जाता है लेकिन यह अंतर उतना ही है जितना शब्द और उससे मिलनेवाले आनंद में है अर्थात् जिस प्रकार मधुर शब्द हमें सुख पहुँचाते हैं और उससे उसकी मधुरता को अलग नहीं किया जा सकता है;  यह अंतर उतना ही है जितना शरीर और प्राण में है कि प्राणों के बिना शरीर का अस्तित्व ही नहीं है; यह अंतर उतना ही है जितना चाँद और चाँदनी में है कि चाँद के बिना चाँदनी की कल्पना नहीं की जा सकती। मिट्टी को जिससे आभा अर्थात् चमक मिलती है वह धूल ही है और मिट्टी के रंग-रूप की पहचान भी उसकी धूल से ही होती है। (ऐसा इसलिए है क्योंकि हमें काली, पीली, लाल, भूरी  आदि बहुत से रंगों की मिट्टी देखने को मिलती है और धूल को लेखक ने रंगहीन कहा है।)

  गद्यांश :-  ग्राम-भाषाएँ अपने सूक्ष्म बोध (कम जानकारी के कारण)  से धूल की जगह ग़र्द (बारीक मिट्टी अर्थात् धूल को बताने के लिए उर्दू शब्द) का प्रयोग कभी नहीं करतीं। धूल वह, जिसे गोधूलि शब्द में हमने अमर कर दिया(गोधूलि के साथ धूल शब्द के साथ जुड़ा है, जो कि हम पवित्र समय मानते हैं)  है। अमराइयों (आम के बागों) के पीछे छिपे हुए सूर्य की किरणों में जो धूलि(सूर्य की किरणों में चमकती धूल)  सोने को मिट्टी(सोने की चमक को महत्त्वहीन) कर देती है, सूर्यास्त के उपरांत(बाद) लीक(चलने से बने रास्ते के निशान) पर गाड़ी के निकल जाने के बाद जो रुई के बादल की तरह(हल्के और कोमल रूप में )  या ऐरावत(स्वर्ग के राजा इन्द्र के हाथी) हाथी के नक्शत्र-पथ (तारों के बीच बने स्वर्ग के रास्ते) की भाँति जहाँ की तहाँ स्थिर रह जाती है, चाँदनी रात में मेले जानेवाली  गाड़ियों के पीछे (गाड़ियों के निकलने के बाद)  जो कवि-कल्पना(कवि की कल्पना की तरह) की भाँति उड़ती चलती है, जो शिशु के मुँह पर, फूल की पंखुड़ियों पर साकार सौंदर्य(दिखाई देने वाली सुन्दरता)  बनकर छा जाती है - धूल उसका नाम है।
सरलार्थ :- गाँव की भाषाओं में कम जानकारी होने के कारण ग़र्द शब्द का प्रयोग धूल के स्थान पर देखने में कभी नहीं आता है, वे धूल शब्द का प्रयोग ही करते हैं।  गाँव के वातावरण में धूल से जुड़े बहुत से अवसर देखने में आते हैं। शहरी सभ्यता में हम गोधूलि शब्द का प्रयोग करते हैं।  यह संध्या का वह समय है जब चरने गईं गाएँ वापस अपने घर लौटती हैं उस समय उनके खुरों के स्पर्श से धूल उड़ती है उस धूल को गोधूलि और उस समय को गोधूलि-वेला कहा जाता है। यह समय अपनी पवित्रता के कारण गोधूलि शब्द के साथ चिर-स्थाई हो गया है। धूल वह है, जो गाँवों के जीवन में आम के पेड़ों से भरे रास्ते पर छाई हुई सूर्य के प्रकाश में ऐसी सुन्दर दिखती है कि उसके सामने सोने की सुन्दरता भी फीकी हो जाती है; गाँव के ऐसे रास्तों पर सूर्य अस्त होने के बाद जब कोई गाड़ी निकल जाती है तब उसके प्रभाव से उड़ आकाश में बहुत देर तक रुई के बादलों की तरह छा जाती है या गाड़ी निकल जाने के बाद बहुत देर तक आसमान में स्थिर रूप से छाकर इन्द्र के हाथी ऐरावत के तारों भरे मार्ग के होने जैसा दृश्य उपस्थित कर देती है; जो चाँदनी रात में किसी मेले में जाने वाली गाड़ियों के चलने पर उनके पीछे उड़ती किसी कवि की कल्पना की तरह इधर-उधर उड़ती दिखाई देती है और जो छोटे बच्चे के मुँह पर या फूल की पंखुरियों पर सुन्दरता बन छा जाती है।

गद्यांश :- गोधूलि (संध्या का वह समय जब चरने गईं गाएँ वापस अपने घर लौट रही होती हैं तब उनके खुरों के स्पर्श से धूल उड़ती है उस धूल को गोधूलि और उस समय को गोधूलि-वेला कहा जाता है। इस समय को बहुत पवित्र समय माना गया है)  पर कितने कवियों ने अपनी कलम नहीं तोड़ दी(खूब लिखा है), लेकिन यह गोधूलि गाँव की अपनी संपत्ति है, जो शहरों के बाटे(हिस्से)  नहीं पड़ी। एक प्रसिद्ध पुस्तक विक्रेता के निमंत्रण-पत्र में गोधूलि की बेला(समय) में आने का आग्रह(निवेदन)  किया गया था, लेकिन शहर में धूल-धक्कड़ के होते हुए भी गोधूलि कहाँ? यह कविता की विडंबना(उपहास की बात) थी और गाँवों में भी जिस धूलि को कवियों ने अमर किया है, वह हाथी-घोड़ों के पग-संचालन(पैरों के हिलने)  से उत्पन्न होनेवाली धूल नहीं है, वरन् गो-गोपालों के पदों(पाँवों) की धूलि है।
सरलार्थ :- कवियों ने गोधूलि पर बहुत लिखा है। इस गोधूलि का संबंध गाँव के वातावरण से है इसलिए यह उनका ही वैभव है, यह शहरों के हिस्से नहीं आती है। शहर के एक पुस्तक विक्रेता ने अपने निमंत्रण- पत्र में गोधूलि-वेला में आने का निवेदन किया था परन्तु शहरों में धूल-धक्कड़ तो हो सकता है, गोधूलि नहीं हो सकती। (शहर गाँव की बसावट के विपरीत बड़ी-बड़ी ऊँची इमारतों और सड़कों से भरा होता है)। कवि शहर में रहते हैं और अपनी कविता में गोधूलि का वर्णन करते हैं- यह उपहास की बात है और गाँव की जिस धूलि को कवियों ने अमर किया है उसकी विशेष बात यह है कि वह हाथी-घोड़ों के पैरों चलने से उत्पन्न होनेवाली धूलि नहीं है, वरन् गायों व उनके पालकों के पाँवों की धूलि है।

गद्यांश :-  ‘नीच को धूरि समान’ वेद-वाक्य(ज्ञान पूर्ण)  नहीं है। सती उसे माथे से, योद्धा उसे आँखों से लगाता है, युलिसिस ने प्रवास से लौटने पर इथाका की धूलि चूमी थी। यूक्रेन के मुक्त होने पर एक लाल सैनिक ने उसी श्रद्धा से वहाँ भी धूल का स्पर्श किया था। श्रद्धा, भक्ति, स्नेह इनकी चरम(सबसे बड़े रूप में) व्यंजना(प्रकट करने)  के लिए धूल से बढ़कर और कौन साधन है? यहाँ तक कि घृणा, असूया(ईर्ष्या)  आदि के लिए भी धूल चाटने( गिड़गिड़ाना या बड़ी नम्रता दिखाना, ), धूल झाड़ने(गन्दगी हटाना, किसी को मारना)  आदि की क्रियाएँ प्रचलित हैं।
सरलार्थ :- ‘नीच को धूरि समान’ यानि किसी को भी ‘धूल के समान तुच्छ’ बताना ज्ञान की बात नहीं है। सती उसे अपने मस्तक से लगाकर उसके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करती है;  युलिसिस* जब अपनी पर लौटा तो उसने इथाका की भूमि का चुंबन लिया था जो कि उसके अपनी मिट्टी के प्रति प्रेम को  बताता है। यूक्रेन पर रूस का अधिकार था और अमरीका अपने सैन्य कारणों से उसे रूस से मुक्त करवाना चाहता था । जब यूक्रेन स्वतंत्र हुआ तब उसके लाल सैनिक ने अपनी मिट्टी के प्रति श्रद्धा बताने के लिए उसका स्पर्श किया था।  इन उदाहरणों के माध्यम से यही ज्ञात होता है कि श्रद्धा, भक्ति, स्नेह आदि को विशाल रूप में प्रकट करने के लिए धूल से बढ़कर कोई और माध्यम हो ही नहीं सकता है। इसलिए किसी को भी ‘धूल के समान तुच्छ’ बताना ज्ञान की बात नहीं है। दूसरी तरफ घृणा, ईर्ष्या आदि के लिए भी ‘धूल चाटने’ अर्थात् पराजित करना, गिड़गिड़ाना या बड़ी नम्रता दिखाना, ‘धूल झाड़ने’ अर्थात् गन्दगी हटाने या किसी को मारने जैसी क्रियाएँ देखने में आती हैं। लेखक के अनुसार धूल के माध्यम से अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के भावों का प्रकट किया जाना देखने में आता है।
*(यूलिसिसि कवि यूनानी कवि होमर के द्वारा लिखी रचना ‘ओडिसी’ में इथाका नामक क्षेत्र का राजा है जो कि ट्रॉय और स्पार्टा के मध्य हुए युद्ध के कारण बहुत समय बाद जब इथाका लौटा था उसने अपनी धरती को छूआ था जो उसके प्रेम को बताता है। )

गद्यांश :- धूल, धूलि, धूली, धूरि आदि की व्यंजनाएँ (प्रकट करने या बताने का भाव)  अलग-अलग हैं। धूल जीवन का यथार्थवादी(वास्तविकता को बतानेवाला) गद्य, धूलि उसकी कविता(कविता के समान भावों से भरा रूप)  है। धूली छायावादी दर्शन(रहस्य से भरा विचार या सिद्धांत) है, जिसकी वास्तविकता(सच्चाई)  संदिग्ध(सन्देह से पूर्ण) है और धूरि लोक-संस्कृति का नवीन जागरण(गाँवों में ही धूल होती है और हमारी संस्कृति का मूल ताना-बाना गाँवों के ही रीति-रिवाजों में बसा है)  है। इन सबका रंग एक ही है, रूप में भिन्नता जो भी हो। मिट्टी काली, पीली, लाल तरह-तरह की होती है, लेकिन धूल कहते ही शरत् के धुले-उजले(साफ-चमकदार)  बादलों का स्मरण हो आता है। धूल के लिए श्वेत(सफेद) नाम का विशेषण अनावश्यक है, वह उसका सहज(स्वाभाविक) रंग है।
सरलार्थ :- धूल के लिए धूल, धूलि, धूली, धूरि आदि शब्दों का प्रयोग अलग-अलग प्रकार के अर्थ में किया जाता है। धूल जीवन की सच्चाई से उसी प्रकार से जुड़ी हुई है जिस प्रकार से गद्य साहित्य में विवेचन कर वास्तविकता को प्रस्तुत करता है; धूलि शब्द कविता के समान भावों से भरा धूल का रूप है (कविताओं में गोधूलि शब्द के प्रयोग में यही भावना दिखाई देती है), धूली शब्द साहित्य के छायावादी दर्शन की तरह एक रहस्य है क्योंकि जिस प्रकार छायावाद में परमात्मा का रूप रहस्य प्रकट नहीं होता है उसी प्रकार से धूली के होने के प्रति भी रहस्य ही दिखाई देता है। धूरि को लोक-संस्कृति का नवीन जागरण अर्थात् संस्कृति के नएपन के विकास में योगदान देनेवाली कहा गया है क्योंकि धूल गाँवों में ही होती है और हमारी संस्कृति का मूल ताना-बाना गाँवों के ही रीति-रिवाजों और परंपराओं में ही बसा है। लेखक के अनुसार ऊपर बताए गए विभिन्न नामों से धूल को क्यों न पुकारा जाए या फिर उनमें रूप से संबंधित विभिन्नता भी क्यों न हो  पर इन सब का रंग एक ही है। हमें मिट्टी के तो काला, पीला, लाल आदि तरह-तरह के रंग देखने को मिल सकते हैं पर धूल कहते ही उसके रंग के संबंध में शरत् ऋतु में दिखाई देनेवाले साफ और चमकदार बादलों जैसा रंग ही याद आता है। धूल को सफेद होने का विशेषण दिया जाना भी उचित नहीं है क्योंकि यह तो उसका स्वाभाविक रंग है।                        

गद्यांश :-  हमारी देशभक्ति धूल को माथे से न लगाए (महत्त्व न दे) तो कम-से-कम उस पर पैर तो रखे(स्थान छोड़कर न जाए) । किसान के हाथ-पैर, मुँह पर छाई हुई यह धूल हमारी सभ्यता से क्या कहती है? (अपनी मिट्टी से निःस्वार्थ प्यार करना और इसी धरती के लोगों के लिए निःस्वार्थ मेहनत करना) हम काँच को(दिखावटी चमकदार चीजों को)  प्यार करते हैं, धूलि भरे(धूल में सने)  हीरे(बच्चे) में धूल ही दिखाई देती है, भीतर की कांति(चमक) आँखों से ओझल (दिखती नहीं)  रहती है, लेकिन ये हीरे(बच्चे) अमर हैं और एक दिन अपनी अमरता का प्रमाण (सबूत) भी देंगे। अभी तो उन्होंने अटूट(मजबूत) होने का ही प्रमाण दिया है- “हीरा वही घन(हथौड़े की) चोट न टूटे।’’ वे उलटकर चोट भी करेंगे और तब काँच और हीरे का भेद जानना बाकी न रहेगा। तब हम हीरे(बच्चे)  से लिपटी (लगी) हुई धूल को भी माथे से लगाना(आदर देना)  सीखेंगे।
सरलार्थ :- हम जिस देश में पैदा होते हैं उसके प्रति हमारे कर्त्तव्य होते हैं, उसके प्रति हमारी जिम्मेदारियाँ होती हैं। आज देशभक्ति को प्रकट करने की भावना का रूप बदल चुका है इसलिए लेखक कहते हैं कि हममें अपनी धरती की धूल को मस्तक से लगाकर अपने देशभक्त होने का परिचय भले ही न दें परन्तु हमें अपनी धरती को छोड़कर नहीं जाना चाहिए। किसान के हाथ-पैर, मुँह पर लगी हुई धूल हमें अपनी  मिट्टी से निःस्वार्थ प्यार करना और इसी धरती के लोगों के लिए निःस्वार्थ मेहनत करने की भावना को बताती है। आज हम दिखावटी चमकदार चीजों के प्रति आकर्षित होते हैं और उनकी इच्छा रखते हैं, आज हमें धूल में सने बच्चे पर लगी धूल दिखाई देती है उसमें विद्यमान गुण दिखाई नहीं देते हैं लेकिन सत्य तो यह है कि ये बच्चे ही बड़े होकर अमर होनेवाले कार्य करेंगे।  जिस प्रकार से हीरा हथौड़े की चोट से नहीं टूटता है उसी प्रकार से यह बच्चे अभी तो मिट्टी में खेलकर अपने मजबूत होने का सबूत दे रहे हैं । जब वे कार्य करेंगे तब हमें सहज ही ज्ञात हो जाएगा कि कौन काँच की तरह बनावटी है, कोमल है, दिखावटी रूप में चमकदार है और कौन हीरे की तरह मज़बूत, कीमती और गुणी है। जब बच्चा बड़ा होकर ‘हीरा’ यानि मजबूत, कीमती, योग्य व अपने ज्ञान से प्रकाशित होगा तब हम उससे लगी हुई धूल को भी अपने मस्तक से लगाकर उसे आदर देना सीखेंगे।

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