वर्तमान समय में मर्यादित सृजनशीलता को अपनाने की आवश्यकता है।- पक्ष

Vartaman Samaya me Mariadit Srijnasheelataa ko Apnane ki aavashyakata hai- For 

आदरणीय सभापति महोदय,  शिक्षकगण प्रिय दोस्तों,

वर्तमान समय एक ऐसा संक्रमण-काल है जहाँ हर  देश अपनी संस्कृति, सभ्यता, रहन-सहन, भाषा के बंधनों को लांधकर दूसरे  देशके साथ संबध स्थापित करने जा रहा है। व्यापारिक आदान-प्रदान के अलावा विज्ञान, तकनीक, शिक्षा और रोजगार की परिस्थितियाँ विश्व के हर देश को अपनी सीमाओं से बाहर निकलने के लिए मज़बूर कर रही हैं। जिसका परिणाम है एक ऐसी संस्कृति और सभ्यता का अस्त्तिव में आना जिसकी हमने कभी कल्पना नहीं की थी। विभिन्न देशों के खान-पान, आचार-विचार, रहन-सहन, पहनावा, भाषा आदि अनेक क्षेत्रों में जबरदस्त परिवर्तन देखने को मिल रहा है। मानवीय समाज और हमारे आपसी संबंध एक नए दौर में से गुजर रहे हैं। सामाजिक संस्थाएँ, उनकी मान्यताएँ, उनकी विचारधाराएँ निरंतर बदलती जा रही हैं ऐसे में स्वाभाविक है कि उस  देश में रहनेवाले लोगों की सृजनात्मकता भी प्रभावित हो। सृजनात्मकता जरूरी नहीं है कि साहित्य के ही क्षेत्र से जुड़ी है

सृजनात्मकता जिसे हमें अंग्रेजी मेंक्रियेटीविटीकहते हैं का संबंध मानव जीवन और समाज के प्रत्येक पहलू से जुड़ा हुआ है। साहित्य में काम स्त्री-पुरूष के निजी संबंधों का वर्णन किया जाना भारतीय साहित्य की परंपरा में कभी नहीं रहा है; हमारे पहनावे में अंग-प्रदर्शन को कभी महत्व नहीं दिया गया है; हमारी संस्कृति आपसी संबंधों को प्रेम और आदर के ऐसे ताने-बाने में बाँधने की पक्षधर रही है जिसने समाज को कभी गिरने नहीं दिया है; हमारे यहाँ एक -दूसरे को पुकारने के लिए प्रचलित शब्दों में जिस मधुरता का अहसास होता है वह कभी भीमाँसे ममी और पापा या पिता सेडैडकी यात्रा में नहीं हुआ है। मानवीय जीवन के अंतरंग पहलुओं कोओपन माइण्डनेसका नाम देकर जिस तरह से उभारा जाने लगा है उसने संस्कृति को एक ऐसे धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ से सांस्कृतिक पतन का रास्ता प्रारम्भ होता है। 1984 के पहले और आज के अखबारों को उठाकर देखें तो चारित्रिक गिरावट की भयानक तस्वीर मिलेगी जो कहाँ जाकर रूकेगी कहा नहीं जा सकता है। सच्चाई तो यह है कि व्यावसायिक  प्रतिस्पर्धा के चलते हमारी संस्कृति पतन की ओर जा रही है। विज्ञान और तकनीक  मशीन और सुविधाओं का निर्माण तो कर सकते हैं पर प्रेम, सौहार्द, आदर, एक -दूसरे के प्रति संवेदना को पैदा करने उसे बनाए रखने का कार्य मर्यादित सृजनात्मकता के तले पनपी संस्कृति के रहते ही हुआ है।
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वर्तमान समय में मर्यादित  सृजनशीलता को अपनाने की  आवश्यकता है।विपक्ष 

आदरणीय सभापति महोदय,  शिक्षकगण प्रिय दोस्तों,

भूख और तृष्णा अच्छे-अच्छों का आँचल उघाड़ देती है और महँगाई वह बला है जो लोगों के कपड़े उतार देती है। मान्यवर,  जो चलता है वही बनता है और वही बिकता है। यही आज की सच्चाई हैं वर्तमान समय!  जब आदमी का भरोसा नहीं रहा है आदमी ही आदमी को मारता है, आदमी ही आदमी को पुचकारता है, आदमी ही आदमी का दुश्मन हो गया है और आदमीपन जाने कहाँ खो गया है। तय है, आदमी की सृजनशीलता आदमी के लिए ही होगी पर गलत है यदि उसमें  देश की संस्कृति झलकती हो; पर गलत है यदि उसमें  देश का चरित्र झलकता हो; पर गलत है यदि वह हमें भावनात्मक रूप से जोड़  पाती हो। जो चीज बिकाऊ होती है उससे इस प्रकार की आशा करना भी गलत है। मुझे  आश्चर्य होता है लिखने की आजादी ऐसी क्यों कि वह  देश से बड़ी हो जाए; पहनने की आजादी वह क्यों जो इंसान के चरित्र को फुसलाए; और ऐसा करने की आजादी क्यों जिससे  देश की इज्जत तार-तार हो जाए। मैं पूछता हूँ ऐसे लोगों को सरेराह फांसी क्यों दी जाए ? तुलसीदासजी ने कहा है, ‘भय बिनु होत प्रीत गुसाईं प्रेम पैदा करना है तो डर पैदा करो क्यों नहीं लिखा जाता वह साहित्य जिससे नारी के प्रति सम्मान की भावना पैदा हो; क्यों नहीं बनाई जाती वह फिल्में जिनमें नारी का महान चरित्र उभरता हो; क्यों नहीं लटकाया जाता उन लोगों को जो देश के चरित्र के साथ खिलवाड़ करते हों।  क्योंकि हमें अपनी संस्कृति की जानकारी ही नहीं है; क्यों कि हमारी सोच और समझ निकृष्ट और संकीर्ण हो गई है; क्योंकि आज दीवारों के घर हैं और उन घरों में भी दीवारें हैं।

दोस्तों, हर पन्द्रह अगस्त को कहते हैं हम आजाद हो गए हैं। पर सच्चाई तो यह है हम अपनी कुंठाओं के गुलाम हो गए हैं, हम परिस्थितयों के खिलौने हो गए हैं, आदमी भले ही कहा जाता है पर मन से बहुत बौने हो गए हैं और मन से बहुत घिनौने हो गए हैं। इसी गंदगी को ढोती है हमारी सृजनशीलता। फिल्म के किसी  दृश्य को देखकर सीटी बजाना याद आता है पर  प्रार्थना-स्थल पर दो मिनट चुप रहना याद दिलाना पड़ता है;  सोशल्स में जाने के लिए सजना-सँवरना और समय पर पहुँचना याद आता है पर जीरो पीरीयड में जाने के लिए फ़राश द्वारा उठाए जाने की जरुरत होती है; माँ या पिता को गाली दी जाने की गंदगी पर हम मरने-मारने पर उतारुँ हो जाते हैं पर हमें फ्रूट-ब्रेक में स्थान को गंदा करने में स्वयं ही शामिल हो जाते हैं। जब तक हमारी मानसिकता ऐसी है सृजन भी ऐसा ही होगा। इसलिए वर्तमान समय में मर्यादित सृजनशीलता को अपनाने की  आवश्यकता है।
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