shiksha rozgar ka sadhan
शिक्षा रोजगार का साधन मात्र है। - पक्ष
आदरणीय अध्यक्ष महोदय,
आज की वाद-विवाद प्रतियोगिता का विषय है कि षिक्षा रोजगार का साधन मात्र है, और मैं इससे पूर्णतः सहमत हूँ ।
शिक्षा की उत्पत्ति, मानव जीवन के साथ से ही जुड़ी हुई है। यह बात अलग है, कि उस काल में मानव भले ही गुफाओं में रहता हो पर, उस समय भी, वह हमेशा नई-नई बातों को जानने में लगा हुआ था। उसके बाद, जैसे-जैसे वह एक सामाजिक प्राणी होने लगा, वैसे -वैसे उसे उस समाज के अनुरूप, आवश्यक बातों को सिखाने की व्यवस्था का निर्माण भी प्रारंभ हुआ। उसकी जिम्मेदारी बढ़ती गई और आवश्यकता हुई, कि, तात्कालिक आवश्यकता के अनुरूप नगर के बच्चों और युवाओं को शिक्षा प्रदान की जाए ताकि वे भविष्य में अच्छे सामाजिक नागरिक बनें। सम्भवतः यहीं से उस शिक्षा-व्यवस्था का जन्म हुआ जिसे कालांतर में हमने गुरुकुल और उसके बाद स्कूल, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि के नाम से स्थापित किया। आवश्यकता आविष्कार की जननी है अतएव जैसे-जैसे मानव सभ्यता विकास की सीढ़ियाँ चढ़ती गई; शिक्षा और उसकी व्यवस्था, उतनी ही उद्देश्यपरक होती चली गई । मानव जीवन की यात्रा, गुफाओं से निकल कर, आज, शहरी मुकाम पर पहुँच गई। सामाजिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन होता ही रहा है, और आगे भी होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं हैं कि, वर्तमान की सामाजिक व्यवस्था, और मानव जीवन के विकास का मूल, उसकी शिक्षा, और उसकी, आर्थिक सम्पन्नता से जुड़ा हुआ है।
मैं अपने विपक्षी वक्ताओं से पूछना चाहूँगा, कि इस अर्थप्रधान युग में, क्या शिक्षा के अलावा कोई और विकल्प, उन्हें दिखाई देता है जो उन्हें जीवन में उन्नति की तरफ लेकर जाए ? क्या साधारण से साधारण आदमी भी बिना शिक्षा के रोजगार प्राप्त कर सकता है ? क्या जो जितना शिक्षित हो जाता है वह समाज में उतना ही सम्मान का पात्र नहीं बन जाता? क्यों हम शिक्षा को सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित कर अपनी दृष्टि को संकुचित कर रहे हैं ? क्या अपने हस्तकला के कार्य में सिद्धहस्त पिता या माता बच्चे को अपनी कला नहीं सिखाते ? क्या इस प्रकार अपने अनुभवों और ज्ञान को अपनी पीढ़ी में बाँटना शिक्षा नहीं है ? क्या केवल पुस्तकीय ज्ञान से दी जाने वाली शिक्षा ही शिक्षा कही जा सकती है ? क्यों मेरे विपक्षी वक्ता भूल रहे हैं, कि पुस्तकीय ज्ञान का आधार भी, यही अनुभवजनित शिक्षा ही है। क्या यह अनुभवजनित शिक्षा रोजगार का साधन नहीं है? मान्यवर, प्रत्येक शिक्षा व्यक्ति में निपुणता को पैदा करती है और निपुणता व्यक्ति को समाज में स्थान दिलाने का ही काम नहीं करती वरन् जीवनयापन का मार्ग भी खोलती है। यदि उद्देश्यपरक शिक्षा नहीं होती तो हमारी सामाजिक व्यवस्था में चिकित्सक, इंजीनीयर, प्राचार्य, निदेशक आदि अन्य विशेषज्ञ भी नहीं होते।
मान्यवर, शिक्षा का नाम आते ही एक ओर कबीर, तुलसी, रैदास, सधना, शकुंतला, पाइथोगोरस आदि का विचार आता है और दूसरी ओर जगदीश बसु, श्री वेंकटरामन, ए पी जे अब्दुल कलाम आदि अनेक आँखों के सामने आते हैं। तब एक ही विचार आता है कि शिक्षा का माध्यम चाहे कोई भी हो वह सबके लिए आत्मिक, मानसिक और भौतिक उन्नति का मार्ग खोलती है। आज मानसिक और भौतिक उन्नति का मार्ग शिक्षा से जुड़ा हुआ है। यदि आपके पास शैक्षिक डिग्रियाँ हैं तो आपके पास उस पद पर बैठने की पात्रता है। एकबार फिर दोहराता हूँ मेरे शब्दों पर ध्यान दीजिएगा । मैंने कहा है, यदि आपके पास शैक्षिक डिग्रियाँ हैं तो आपके पास उस पद पर बैठने की पात्रता है, वह रोजगार को पाने का माध्यम है पर उस पद पर आप सदा ही इन डिग्रियों के सहारे बैठे रहेंगे ऐसा नहीं है क्यों कि आपको अपनी वैचारिक, मानसिक योग्यता, सूझबूझ और दूरदर्शिता का परिचय देना होगा तब ही आप पदविशेष पर लगातार बने रह सकेंगे। अतएव, शिक्षा सिर्फ रोजगार को उपलब्ध कराने का साधन बनती है; वह एक माध्यम है जिसके जरिए व्यक्ति उचित रोजगार को हासिल तो कर सकता है पर स्थाई रूप से उस पद पर बने रहने या फिर और आगे उन्नति करने के लिए कार्य से जुड़ी अन्य प्रतिभाओं का होना भी जरुरी है। इसलिए अपने विपक्षी वक्ताओं और सदन से यह कहते हुए अपना स्थान ग्रहण करना चाहूँगा कि शिक्षा रोजगार का साधन मात्र है। वह साध्य नहीं है। वह एक सीढ़ी है जिसका हम इस्तेमाल करते हैं और बतातें हैं कि हम किसी पद-विशेष के योग्य हैं। पर पद पर बने रहने के लिए विवेक, विश्लेषण, दूरदर्शिता, योजनाओं का निर्माण और उनकी अनुपालन कराने की दक्षता आदि अनेक बातों का भी होना जरुरी होता है।
।।धन्यवाद।।
शिक्षा रोजगार का साधन मात्र है। - विपक्ष
आदरणीय अध्यक्ष महोदय,
आज की वाद-विवाद प्रतियोगिता का विषय है कि शिक्षा रोजगार का साधन मात्र है, और मैं इससे सहमत नहीं हूँ।
मान्यवर, जो शिक्षा हममें ऐसी प्रतियोगिता को जन्म देती है कि हम दूसरों से आगे निकलने में सुख का अनुभव करने लगे वह शिक्षा कुछ भी बनाए पर मानव नहीं बनाती; जो शिक्षा दूसरों को हराने में हमें आन्नद देती है वह कुछ भी बनाए पर मानव नहीं बना सकती; वह शिक्षा जो सबको साथ लेकर चलने की विचारधारा पर आधारित नहीं है वह कुछ भी बनाए पर इंसान नहीं बना सकती। ऐसी शिक्षा ईर्ष्या पैदा करती है, जलन पैदा करती है, दूसरों को नीचा दिखाने की भावना पैदा करती है, मनुष्य को मानसिक और वैचारिक दृष्टि से बीमार बनाती है, ऐसी शिक्षा रोजगार का साधन नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव जाति के विनाश का साधन मात्र ही हो सकती है।
‘विद्या चः विमुक्तये।’ अर्थात् विद्या जो मनुष्य को मुक्त करे । उसे मुक्त करे विकारों से, आत्मिक उन्नति में बाधक बंधनों से। उसे मुक्त करे अज्ञानता से, उसे मुक्त करे अविद्या से। प्रश्न जो उपस्थित है, वह है कि क्या शिक्षा रोजगार का साधन-मात्र है। जो शिक्षा आत्मिक और मानसिक विकास का साधन है वह सिर्फ रोजगार का साधन कैसे हो सकती है ? मेरे विपक्षी वक्ताओं को समझना चाहिए कि शिक्षा सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान नहीं है। परिवार के संस्कारों की शिक्षा का विश्वविद्यालय माँ होती है, सांसारिक और सामाजिक शिक्षा की प्रथम पाठशाला पिता होता है; भौतिक और आत्मिक उन्नति की शिक्षा जातक को अपने गुरुजनों और अपने से बड़ों से मिलती है; व्यावहारिक जीवन की शिक्षा देने के लिए संसार पहले एक पाठशाला की भूमिका अदा करता है और फिर रंगमंच की। ऐसी स्थिति में शिक्षा रोजगार का साधन नहीं अपितु मनुष्य की आत्मिक और भौतिक, मानसिक और सांसारिक उन्नति का साधन बन जाती है। बुद्ध, महावीर, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, गणितज्ञ शकुंतला देवी, आर्यभट्ट, चाणक्य, जगद्गुरु शंकराचार्य आदि अनेक कितने ही नाम याद आते हैं जिन्होंने अपने मनुष्य होने का प्रमाण दिया है। जिनके सिद्धांत और आदर्श आज भी बड़ी-बड़ी कक्षाओं में छात्रों को पढ़ाए जाते हैं क्या यह शिक्षा सिर्फ रोजगार के लिए दी जाने वाली शिक्षा है ? क्या इनकी शिक्षा मनुष्य को मनुष्य बनाए जाने की शिक्षा नहीं हैं।
मान्यवर, शिक्षा मनुष्य के संस्कारों और प्रतिभाओं को निखारने का साधन है। प्रत्येक मनुष्य में जन्मजात मौजूद लोभ, मोह, माया, काम, क्रोध को नियंत्रित कर, बुद्धि के विकास की व्यवस्था का नाम शिक्षा है; मनुष्य में विवेक, विश्लेषण, दूरदर्शिता, सहयोग, प्रेम और सौहार्द की भावना का परिष्कार करने की भावना का नाम शिक्षा है; मान्यवर, एक वाक्य में कहूँ तो मनुष्य को मनुष्य बनाने की विधा का नाम शिक्षा है। फिर शिक्षा को हम रोजगार का साधन-मानकर संकुचित अर्थाें में कैसे ले सकते हैं? पुस्तकीय ज्ञान को चरम और परम मानकर चलने वाले व्यक्ति की एक ही मंजिल होती है और वह है संताप और निराशा की क्योंकि उसकी सोच व्यावहारिक जीवन नहीं अपितु पुस्तकीय ज्ञान पर आधारित होती है।
मान्यवर, युवाओं में जितना आक्रोश, व्यवस्था के प्रति घृणा आज देखने में आ रही है उसका कारण यही है कि हमने पुस्तकीय शिक्षा को व्यावहारिक शिक्षा से श्रेष्ठ मानने की भूल की है। पिछले कई दशकों से हम यही भूल करते आ रहे हैं। इसका परिणाम है कि युवा स्वयं को असहाय महसूस करने लगा है। पिछले पचास सालों से आज तक हम न तो जातिगत द्वेष को खत्म कर पाए हैं और न ही सामाजिक भिन्नता को। संगीत जैसे भेद को तिरोहित कर देता है क्या वैसे ही प्रेम को देश के नागरिकों में स्थापित करने में कामयाब हुए हैं ? क्यों हुआ है ऐसा? क्योंकि शिक्षा के प्रति हमारी सोच संकुचित है; क्योंकि हम सोच रहें हैं कि अच्छी डिग्री अच्छा रोजगार देगी; क्योंकि हम सोच रहे हैं कि अच्छी डिग्री व्यक्ति को सर्वगुण सम्पन्न बना देगी; क्योंकि हम सोच रहे हैं कि अच्छी डिग्री व्यावहारिक जीवन की शिक्षा के समान है। हमारी यह सोच गलत है। चिकित्सा की वह डिग्री होना बेकार है जिससे व्यक्ति में दूसरों की सेवा किए जाने की भावना न पैदा होती हो; इंजीनीयर की वह डिग्री बेकार है जिससे समाज और देश का हित किए जाने की भावना पैदा न होती हो; शिक्षक की वह डिग्री बेकार है जो भावी नागरिकों का निर्माण न कर सकती हो। सच्चाई यही है कि शिक्षा हमारी जन्मजात रूचियों को निखारती है; सच्चाई यही है कि वह हमारी वैचारिक और मानसिक सोच का विकास करती है, सच्चाई यही है कि वह हमें परिपक्व बनाती है, सच्चाई यही है कि वह सिर्फ रोजगार का साधन मात्र नहीं होती। ।।धन्यवाद।।