Pashchatya sanskriti ka andhanukaran ghatak hai -For & Against
सम्मानीय अध्यक्ष महोदय, मैं सदन की राय से सहमत हूँ कि पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण घातक है।
जब देश अलग हैं, देश की पहचान अलग है, देश का धर्म अलग है, जिस वातावरण में बच्चे का पालन-पोषण होता है वह वातावरण अलग है तब दूसरे देश के आचार-विचार हमारे कैसे हो सकते हैं? पाश्चात्य जगत में मानवीय संबंधों में जो स्वच्छन्दतावाद दिखाई देता है वह हमारी संस्कृति के विपरीत है। हमारे यहाँ प्रत्येक संबध का एक सम्मानजनक आधार है पर पाश्चात्य जगत में ऐसा नहीं है। इस स्वच्छन्दतावाद के परिणाम बहुत भयंकर रूप में हमारे सामने आ रहे हैं। भारतीय परंपरा में लिव इन संबंधों को कभी महत्व नहीं दिया गया पर आज इसका अनुकरण हो रहा है परिणाम समाज में एक अलग प्रकार की परिस्थिति पैदा हो रही है। समलैंगिक-विवाह हमारे समाज की देन नहीं है यह पाश्चात्य प्रभाव है जो भारतीय समाज में देखने को मिल रहा है। जब वातावरण ऐसा देखता हूँ तब मन कह उठता है कि पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण घातक है।
मान्यवर, प्रत्येक संबंध की एक गरिमा होती है, उसका अपना आदर्श होता है उसे सार्वजनिक स्थलों पर गलबहियाँ डालकर लोगों को बताने की जरूरत नहीं होती है। वह स्वयं के व्यवहार से जाना जाता है। पाश्चात्य जगत में चुंबन सार्वजनिक मान्यता प्राप्त हो सकता है; कम कपड़े सौन्दर्य-बोध की पहचान हो सकते हैं; एक से अधिक विवाह सामाजिक रूप से स्वीकार किए जाते होंगे पर हमारी संस्कृति इस रास्ते की यात्री नहीं रही है। उसने शरीर की नश्वरता और आत्मा की पवित्रता को बहुत पहले ही पहचान लिया था। वह शरीर के सुखों से ऊपर उठकर आत्मा के सुख की बात करती है। जो आत्मा के चिरंतन सुख को पा लेता है वह शरीर के नश्वर सुख को महत्व नहीं देता है। हमारी संस्कृति आत्मा के सुख और उसकी की बात करती है। जब आत्मिक उन्नति होती है तो रामकृष्ण परमहंस पैदा होते हैं, स्वामी विवेकानंद पैदा होते हैं, सुभाष बोस पैदा होते हैं, भगत सिंह पैदा होते हैं, महाराणा प्रताप पैदा होते हैं, लक्ष्मीबाई, पन्नाधाय पैदा होती है और जब शरीर सुख को महत्व देते हैं तो अपने हाथों कुल और देश को नुकसान करनेवाले पैदा होते हैं। पाश्चात्य जगत की क्षणिक चकाचौन्ध से आकर्षित होकर युवा उस और दौड़ रहे हैं जिसका परिणाम होना है वे कहीं के न रहेंगे। दाँत जब अपनी जगह से हट जाता है तब वह किसी काम का नहीं रहता। जब तक आप अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं तब तक ही आपको सम्मान मिलता है।
मान्यवर, बुराई अच्छाई की तुलना में बहुत जल्दी आकर्षित करती है और फिर अपना गुलाम बना लेती है। जरूरत है कि हम किसी भी संस्कृति के अनुकरण से पहले उसके अच्छे और बुरे की पहचान कर लें। यदि ऐसा नहीं होगा तो हम उन तत्वों को अपनाने लग जाएँगें जो हमारे देश और समाज की विचारधारा के अनुसार नहीं है। मान्यवर, पाश्चात्य जगत की सारी दौड़ भौतिक सुखों से जुड़ी हुई है। उनके अनुसार शरीर को कम से कम कष्ट मिले, बटन दबाते ही सारे कार्य हो जाए और वहाँ भावना का तामसिक रूप देखने को मिलता है जबकि भारतीय संस्कृति जो आत्मिक उन्नति को आदर देती आई है सात्विक रूप को महत्व देती है। हमारे यहाँ अंहिसा, भाईचारे, परोपकार, सहयोग की बात की जाती है। विवेकानंद ने जब शिकागो में अपने वक्तव्य में भाइयों और बहनों संबोधन का प्रयोग किया था तो सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा था क्योंकि उनके इतिहास में कभी इस भावना को समझा ही नहीं गया। वहाँ स्वार्थ को महत्व दिया जाता है तो हम प्रेम को महत्व देते हैं। वहाँ प्रेम की भाषा सिखाते- सिखाते ईसा सूली पर चढ़ जाते हैं तो हमारे यहाँ कृष्ण प्रेम का महत्व बताते गीता का पाठ पढ़ा जाते हैं; वहाँ पादरी स्वर्ग में जाने का सर्टीफिकेट देने लग जाते हैं तो हमारे यहाँ कबीर बाहरी आडम्बरों का त्याग कर आत्मा में गहरे उतरने का संदेश सिखाते हैं। मान्यवर मैं कैसे कहूँ कि पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण घातक नहीं है।
कौआ हंस नहीं हो सकता, हंस कौआ नहीं हो सकता। देशकाल और वातावरण ने जिसे जैसा ही बनाया है वह अपनी-अपनी सीमाओं के अनुसार है इसलिए जरूरी है जिस भारतीय संस्कृति का विश्व लोहा मानता है उसका अंधानुकरण करें क्योंकि वह अपनी है, अपनी पहचान है अपना स्वाभिमान है।(धन्यवाद)
************************************
पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण घातक है। - विपक्ष
मैं सदन की राय से सहमत नहीं हूँ कि पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण घातक है।
मान्यवर, अंधानुकरण उसका किया जाता है जिसपर पूर्णतः विश्वास हो और जिसके हाथों में आप स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हों । संस्कृति के अंधानुकरण की बात करने से पहले बताना चाहूँगा कि संस्कृति कहते किसे हैं - किसी व्यक्ति, जाति, राष्ट्र आदि की वे सब बातें जो उसके मन, रुचि, आचार-विचार, कला-कौशल और सभ्यता के क्षेत्र में बौद्धिक विकास की सूचक होती है। मान्यवर, हर देश की अपनी संस्कृति होती है जो कि उस देश की पहचान होती है। परन्तु, आज समय बदल गया है। भारत में यह समय बार-बार बदलता रहा । जब-जब भी विदेशी आक्रमण हुए, अन्य देश के लोग यहाँ शासक बने तब-तब भारतीय संस्कृति के तत्वों में बदलाव आया और आज हम उन्हीं तत्वों पर गर्व करते हैं। मान्यवर, आज फिर समय बदल रहा है। देश की सीमाएँ भले ही न बदलें पर उनके अन्य राष्ट्रों के साथ संबंध बदल रहे हैं। परिणाम उस संस्कृति की बातें हम अपना रहे हैं और हमारी वे। पाश्चात्य संस्कृति की बात आते ही हम अस्थिर हो जाते हैं। ऐसा क्यों ? संस्कृति की बुनियाद धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष है। इनमें से एक का भी पालन नहीं होगा तो समाज और देश लड़खड़ाने लगता है। हम धर्म, अर्थ, मोक्ष के नाम पर बहुत उदार है पर काम की बात आते ही हम संकुचित हो जाते हैं। जबकि कामसूत्र की रचना हमारे देश में हुई; काम पर विजय प्राप्त करके ही हम धार्मिक हो पाते हैं इसलिए बहुत से प्राचीन मंदिरों के बाहर काम की मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं। विश्व में शायद ही कोई अन्य धार्मिक स्थल इस प्रकार का होगा। पर बुराई हमारी सोच से जन्म लेती है। सच तो यह है कि किसी भी देश की संस्कृति वासना पर आधारित नहीं है। पर हमें, उन संस्कृतियों में वासना ही नजर आती है। मान्यवर, चारों स्तम्भों में काम ही ऐसा क्षेत्र है जहाँ सारे संबंध, सारी परंपराएँ, परिवार की सारी बंदिशें दम तोड़ देती हैं। यह भारतीय संस्कृति में पहले भी होता था और आज भी होता है तो इसका दोष दूसरी संस्कृतियों पर क्यों ?
मान्यवर, अंधानुकरण घातक है पर किसका ? संस्कृति विकास की सूचक है। मैं एक बात कहना चाहता हूँ कि विश्व की कोई भी संस्कृति बुरी नहीं है। यह आदमी का मन है जो सदा काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया, वासना से जकड़ा रहता है और खराब बात तो तब हो जाती है जब वह अपनी बुद्धि को इनके इशारे पर छोड़ देता है। और जब ऐसा होता है तब वह व्यक्ति, वह समाज, वह देश पतन की ओर जाने लगता है। कोई संस्कृति कपड़ा उतारने के लिए नहीं कहती, कोई संस्कृति दूसरों के मन-मस्तिष्क पर अधिकार जमाने की बात नहीं करती फिर किसी भी संस्कृति का अंधानुकरण घातक कैसे हो सकता है। यदि हमारा मन अपवित्र है तो सदा ही अपवित्र बातों में लगा रहेगा तो क्या हम इसके लिए संस्कृति को दोषी ठहराएँगें; यदि हमारे मन में दूसरों की कमजोरियों से लाभ उठाने की बात है तो क्या हम इसके लिए संस्कृति को दोषी ठहराएँगें; यदि हम अपनी स्वार्थ भावना को महत्व देने लगें तो क्या संस्कृति ऐसा करने के लिए कह रही है; यदि हम वासना के पुजारी बनने लगें तो क्या इसके लिए संस्कृति दोषी है? मान्यवर, सोच को सही रास्ते पर लाने की आवश्यकता है। कोई भी संस्कृति अराजक होना नहीं सिखाती चाहे वह पाश्चात्य ही क्यों न हो। अन्धानुकरण आप पाश्चात्य संस्कृति का करें पर उससे कोई नुकसान नहीं है।
मान्यवर, पाश्चात्य संस्कृति अपने देशकाल के अनुसार धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के मार्ग पर चल रही है और हम अपनी तरह से। अंधानुकरण हम संस्कृति का करें यह घातक नहीं है। घातक है हमारे द्वारा पाश्चात्य जगत की सामाजिक बुराइयों का अंधानुकरण किया जाना। हम जब सामाजिक बुराइयों का अंधानुकरण करते है तो व्यक्ति, समाज और देश पतन को प्राप्त होता है। एक बार फिर से बताना चाहूँगा कि संस्कृति है - किसी व्यक्ति, जाति, राष्ट्र आदि की वे सब बातें जो उसके मन, रुचि, आचार-विचार, कला- कौशल और सभ्यता के क्षेत्र में बौद्धिक विकास की सूचक होती है। (धन्यवाद)