NAITIK MULYA
PATHYAPUSTAKON TAK SIMIT HEIN
आदरणीय अघ्यक्ष महोदय,
मैं सदन की राय सहमत हूँ कि नैतिक मूल्य पाठ्यपुस्तकों तक सीमित है।
मान्यवर, मनुष्य को एक
सामाजिक प्राणी कहा जाता है। सारी वसुधा ही एक कुटुम्ब कही जाती है। कहा जाता है
कि हममें आपसी सहयोग है, सद्भाव है, मिलनसारिता है, विनय है, प्रेम है; भाईचारा है
आदि आदि और न जाने कितने ही आदर्श है। पर सभी कहे जाते हैं। ये सुन्दर से फ्रेम
में सुन्दर-सी तस्वीर है। जीवन की व्यावहारिकता में वर्तमान में प्रत्येक व्यक्ति
काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया से घिरकर स्वार्थी हो गया है। जीवन की व्यवहारिकता में
नैतिक मूल्य सीमित हो गए है।
मान्यवर, जितनी चोर
बाजारी, कालाबाजारी, लूटमारी, फ़रेबियत, कूटनीति, आरोप-प्रत्यारोप, छल, खुदगर्जी का
वातावरण हमें चारों तरफ देखने को मिल रहा है, उतना शायद ही पहले रहा हो। आए दिन
समाचार सुनने को मिलते हैं कि बेटे ने माँ का खून किया, पुत्र ने पिता को मार
डाला, पत्नी ने पति की हत्या कर दी, पति ने पूरे परिवार को ज़हर दे दिया। ये तो वे
संबंध हैं जिन्हें एक परिवार के रुप परिभाषित किया जाता है । क्या, ऐसी स्थिति
प्रमाणित करती है कि नैतिक मूल्य स्थापित हैं?
मान्यवर, जो पीढ़ी आज
सत्ता के गलियारे में बैठी है उसमें से अधिकतर परिवारवाद और परंपरावाद की
पैदाइश है। राष्ट्रीय स्तर के नेता दुर्लभ हो गए हैं। जाति, भाषा,
धर्म, क्षेत्र, परिवार के समीकरणों की बिसात पर देश बैठा है। इस स्तर
पर किसी भी प्रकार से पहुँचने के लिए गलाकाट होड़ देखी जा सकती है। कैसे कहूँ
कि नैतिक मूल्य समाज में स्थापित है !
मान्यवर, देश की
आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी पुलिस-विभाग की है। इस विभाग में भी रिश्वत के पाँव कितने गहरे जमे है। कि अपराधी भी सीना तानकर घूमते दिखाई
देते हैं। न्याय मिलता नहीं और मिलता भी है तो वर्षों लग जाते हैं। अर्थ की वेदी
पर कानून, धर्म, संस्कार, नैतिकता आदि सभी की बलि चढ़ जाती है। मान्यवर कटुसत्य है
कि आजादी के पहले चालीस सालों में इतने मुकदमें दर्ज नहीं हुए होंगे जितने
पिछले बीस सालों में हुए हैं। ऐसी स्थिति देखकर कैसे कहूँ कि समाज में नैतिक मूल्य
स्थापित है!
मान्यवर, इस अनैतिकता ने
शिक्षा के क्षेत्र को भी नहीं छोड़ा है। नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले शिक्षा-केन्द्र अनैतिकता के अड्डे बने हुए हैं। समाज में पवित्र माने जाने
वाला यह क्षेत्र भी अनैतिक आचरण, धनलिप्सा व भोग की बलि चढ़ता जा रहा है। इससे
बुरी बात और क्या हो सकती है।
मान्यवर किस क्षेत्र की
बात करूँ? शायद ही कोई क्षेत्र है जहाँ नैतिक मूल्य बने हुए हैं। नैतिक मूल्य यदि
व्यावहारिक जीवन में होते तो समाज की इतनी डरावनी तस्वीर हमें देखने को न मिलती। चोरी, भ्रष्टाचारी, सीनाजोरी, लूट-खसोट, अनैतिक धंधे नहीं होते, लोग वासना
से अंधे नहीं होते, बहु-बेटियाँ सुरक्षित होतीं, धर्म के नाम पर दंगे नहीं होते ।
न्यायालयों की आवश्यकता नहीं होती, लोग न तो जले पर नमक छिड़कते, और न ही रोटियाँ
सेंकते। कोई नवजात को छोडकर नहीं भागता, कोई वृद्धावस्था में वृद्धाश्रम की चौखट नहीं तलाशता; किसी दामन में मासूमीयत बदनाम नहीं होती और मेरे देश
की इज्जत चौराहे पर नीलाम नहीं होती। पुराने व वर्तमान जीवन के तरीकों में बहुत से
बदलाव आ गए हैं जिनमें से प्रमुख है संयुक्त परिवार का टूटना और माँ और पिता दोनों
का नौकरीपेशा होने की बाध्यता होना। ऐसी स्थिति में परिवार रूपी संस्था अपना
दायित्व सही रूप से पूरा नहीं कर पा रही है और परिवार से बाहर का वातावरण
कैसा है इसकी तस्वीर आपके समक्ष है ही। यही कारण है कि कक्षा में नैतिकता की
शिक्षा का पाठ पढ़ाया जाने लगा है। इसे एक विषय के रूप में स्वीकार किया गया है।
इसलिए यह सच है कि नैतिक मूल्य पुस्तकों तक ही सीमित है। || धन्यवाद||