मेरा छोटा-सा निजी पुस्तकालय

Mera Chhota Sa Niji Pustakalaya

- धर्मवीर भारती

लेखक परिचय
सरलार्थ
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जुलाई 1989 । बचने की कोई उम्मीद(आशा) नहीं थी। तीन-तीन ज़बरदस्त हार्ट-अटैकएक के बाद एक। एक तो ऐसा कि नब्ज़ (नाड़ी) बंदसाँस बंदधड़कन बंद। डाॅक्टरों ने घोषित कर दिया कि अब प्राण नहीं रहे। पर डाॅक्टर बोर्जेस ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी थी। उन्होंने नौ सौ वाॅल्ट्स के शाॅक्स (Shocks) दिए। भयानक प्रयोग। लेकिन वे बोले कि यदि यह मृत शरीर मात्रा है तो दर्द महसूस ही नहीं होगापर यदि कहीं भी ज़रा भी एक कण प्राण शेष होंगे तो हार्ट रिवाइव (Revive)कर सकता है। प्राण तो लौटेपर इस प्रयोग में साठ प्रतिशत हार्ट सदा के लिए नष्ट हो गया। केवल चालीस प्रतिशत बचा। उसमें भी तीन अवरोध (Blockage) हैं। ओपेन हार्ट आॅपरेशन तो करना ही होगा पर सर्जन (शल्य चिकित्सक) हिचक रहे हैं। केवल चालीस प्रतिशत हार्ट है। आॅपरेशन के बाद न रिवाइव हुआ तोतय हुआ कि अन्य विशेषज्ञों की राय ले ली जाएतब कुछ दिन बाद आॅपरेशन की सोचेंगे। तब तक घर जाकर बिना हिले-डुले विश्राम करें।

बहरहालऐसी अर्द्धमृत्यु (अधमरा) की हालत में वापस घर लाया जाता हूँ। मेरी ज़िद है कि बेडरूम में नहींमुझे अपने किताबों वाले कमरे में ही रखा जाए। वहीं लिटा दिया गया है मुझे। चलनाबोलनापढ़ना मना। दिन-भर पड़े-पड़े (लेटे -लेटे) दो ही चीजें देखता रहता हूँबाईं ओर की खिड़की के सामने रह-रहकर हवा में झूलते सुपारी के पेड़ के झालरदार पत्ते और अंदर कमरे में चारों ओर फर्श से लेकर छत तक ऊँचीकिताबों से ठसाठस भरी अलमारियाँ। बचपन में परी कथाओं (Fairy tales) में जैसे पढ़ते थे कि राजा के प्राण उसके शरीर में नहींतोते में रहते हैंवैसे ही लगता था कि मेरे प्राण इस शरीर से तो निकल चुके हैंवे प्राण इन हज़ारों किताबों में बसे हैं जो पिछले चालीस-पचास बरस में धीरे-धीरे मेरे पास जमा होती गई हैं।

कैसे जमा हुईंसंकलन (इकट्ठा करना) की शुरुआत कैसे हुईयह कथा बाद में सुनाऊँगा। पहले तो यह बताना ज़रूरी है कि किताबें पढ़ने और सहेजने (सम्भाल कर रखने) का शौक कैसे जागा। बचपन की बात है। उस समय आर्य समाज का सुधारवादी आंदोलन अपने पूरे ज़ोर पर था। मेरे पिता आर्य समाज रानी मंडी के प्रधान थे और माँ ने स्त्री-शिक्षा के लिए आदर्श कन्या पाठशाला की स्थापना की थी।

पिता की अच्छी-खासी सरकारी नौकरी थी। बर्मा रोड जब बन रही थी तब बहुत कमाया था उन्होंने। लेकिन मेरे जन्म के पहले ही गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी थी। हम लोग बड़े आर्थिक (रुपये-पैसे संबंधी) कष्टों से गुज़र रहे थेफिर भी घर में नियमित पत्र-पत्रिकाएँ आती थीं, ‘आर्यमित्र साप्ताहिक’, ‘वेदोदम’, ‘सरस्वती’, ‘गृहिणी’ और दो बाल पत्रिकाएँ खास मेरे लिए.बालसखा’ और ‘चमचम। उनमें होती थी परियोंराजकुमारोंदानवों और सुंदरी राजकन्याओं की कहानियाँ और रेखाचित्र। मुझे पढ़ने की चाट(आदत) लग गई। हर समय पढ़ता रहता। खाना खाते समय थाली के पास पत्रिकाएँ रखकर पढ़ता। अपनी दोनों पत्रिकाओं के अलावा भी ‘सरस्वती’ और ‘आर्यमित्र’ पढ़ने की कोशिश करता। घर में पुस्तकें भी थीं। उपनिषदें और उनके हिंदी अनुवाद, ‘सत्यार्थ प्रकाश ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के खंडन-मंडन वाले अध्याय पूरी तरह समझ तो नहीं पाता थापर पढ़ने में मज़ा आता था। मेरी प्रिय पुस्तक थी स्वामी दयानंद की एक जीवनीरोचक (मनोरंजक) शैली में लिखी हुईअनेक चित्रों से सुसज्जित। वे तत्कालीन पाखंडों (दिखावटीढकोसला) के विरुद्ध अदम्य (जिसे दबाया न जा सके) साहस दिखाने वाले अद्भुत व्यक्तित्व थे। कितनी ही रोमांचक घटनाएँ थीं उनके जीवन की जो मुझे बहुत प्रभावित करती थीं। चूहे को भगवान का भोग खाते देखकर मान लेना कि प्रतिमाएँ (मूर्तिया)  भगवान नहीं होतींघर छोड़कर भाग जानातमाम तीर्थोंजंगलोंगुफाओंहिमशिखरों पर साधुओं के बीच घूमना और हर जगह इसकी तलाश करना कि भगवान क्या हैसत्य क्या हैजो भी समाज-विरोधीमनुष्य-विरोधी मूल्य हैंरूढि़याँ (जर्जर परम्पराएँ) हैंउनका खंडन करना और अंत में अपने से हारे को क्षमा कर उसे सहारा देना। यह सब मेरे बालमन को बहुत रोमांचित  करता। जब इस सबसे थक जाता तब फिर ‘बालसखा’ और ‘चमचम’ की पहले पढ़ी हुई कथाएँ दुबारा पढ़ता।

माँ स्कूली पढ़ाई पर ज़ोर देतीं। चिंतित रहतीं कि लड़का कक्षा की किताबें नहीं पढ़ता। पास कैसे होगा! कहीं खुद साधु बनकर घर से भाग गया तोपिता कहते, जीवन में यही पढ़ाई काम आएगीपढ़ने दो। मैं स्कूल नहीं भेजा गया थाशुरू की पढ़ाई के लिए घर पर मास्टर रखे गए थे। पिता नहीं चाहते थे कि नासमझ उम्र में मैं गलत संगति में पड़कर गाली-गलौज सीखूँबुरे संस्कार ग्रहण करूँ अतः मेरा नाम लिखाया गयाजब मैं कक्षा दो तक की पढ़ाई घर पर कर चुका था। तीसरे दर्जे में मैं भरती हुआ। उस दिन शाम को पिता उँगली पकड़कर मुझे घुमाने ले गए।

लोकनाथ की एक दुकान ताज़ा अनार का शरबत मिट्टी के कुल्हड़ में पिलाया और सिर पर हाथ रखकर बोले, ‘‘वायदा करो कि पाठ्यक्रम की किताबें भी इतने ही ध्यान से पढ़ोगेमाँ की चिंता मिटाओगे।’’ उनका आशीर्वाद था या मेरा जी-तोड़ परिश्रम कि तीसरे, चौथे में मेरे अच्छे नंबर आए और पाँचवें में तो मैं फर्स्ट आया। माँ ने आँसू भरकर गले लगा लियापिता मुसकुराते रहेकुछ बोले नहीं। चूँकि अंग्रेज़ी में मेरे नंबर सबसे ज़्यादा थेअतः स्कूल से इनाम में दो अंग्रेज़ी किताबें मिली थीं। एक में दो छोटे बच्चे घोंसलों की खोज में बागों और कुंजों में भटकते हैं और इस बहाने पक्षियों की जातियोंउनकी बोलियोंउनकी आदतों की जानकारी उन्हें मिलती है। दूसरी किताब थी ‘ट्रस्टी द रग’ जिसमें पानी के जहाजों की कथाएँ थीं, कितने प्रकार के होते हैंकौन-कौन-सा माल लादकर लाते हैंकहाँ से लाते हैंकहाँ ले जाते हैंनाविकों की ज़िन्दगी कैसी होती हैकैसे-कैसे द्वीप (टापूवह भूभाग जिसके चारों ओर पानी हो)  मिलते हैंकहाँ ह्वेल होती हैकहाँ शार्क होती है।

इन दो किताबों ने एक नयी दुनिया का द्वार मेरे लिए खोल दिया। पक्षियों से भरा आकाश और रहस्यों से भरा समुद्र। पिता ने अलमारी के एक खाने से अपनी चीजें हटाकर जगह बनाई और मेरी दोनों किताबें उस खाने में रखकर कहा.आज से यह खाना तुम्हारी अपनी किताबों का। यह तुम्हारी अपनी लाइब्रेरी है।’’

यहाँ से आरंभ हुई उस बच्चे की लाइब्रेरी। बच्चा किशोर हुआस्कूल से काॅलेज़काॅलेज़ से युनिवर्सिटी गयाडाॅक्टरेट हासिल कीयुनिवर्सिटी में अध्यापन कियाअध्यापन छोड़कर इलाहाबाद से बंबई आयासंपादन किया। उसी अनुपात में अपनी लाइब्रेरी का विस्तार करता गया।

पर आप पूछ सकते हैं कि किताबें पढ़ने का शौक तो ठीककिताबें इकट्ठी करने की सनक क्यों सवार हुईउसका कारण भी बचपन का एक अनुभव है। इलाहाबाद भारत के प्रख्यात (प्रसिद्ध) शिक्षा-केंद्रों में एक रहा है। ईस्ट इंडिया द्वारा स्थापित पब्लिक लाइब्रेरी से लेकर महामना मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित भारती भवन तक। विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी तथा अनेक काॅलेजों की लाइब्रेरियाँ तो हैं हीलगभग हर मुहल्ले में एक अलग लाइब्रेरी। वहाँ हाईकोर्ट हैअतः वकीलों की निजी लाइब्रेरियाँ, अध्यापकों की निजी लाइब्रेरियाँ। अपनी लाइब्रेरी वैसी कभी होगीयह तो स्वप्न में भी नहीं सोच सकता थापर अपने मुहल्ले में एक लाइब्रेरी थी, ‘हरि भवन। स्कूल से छुट्टी मिली कि मैं उसमें जाकर जम जाता था। पिता दिवंगत(स्वर्गवासी) हो चुके थेलाइब्रेरी का चंदा चुकाने का पैसा नहीं थाअतः वहीं बैठकर किताबें निकलवाकर पढ़ता रहता था। उन दिनों हिंदी में विश्व साहित्य विशेषकर उपन्यासों के खूब अनुवाद (Translation) हो रहे थे। मुझे उन अनूदित(Translated) उपन्यासों को पढ़कर बड़ा सुख मिलता था। अपने छोटे-से ‘हरि भवन’ में खूब उपन्यास थे। वहीं परिचय हुआ बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की ‘दुर्गेशनंदिनी’, ‘कपाल कुण्डला’ और ‘आनंदमठ’ से, टालस्टाय की ‘अन्ना करेनिना’, विक्टर ह्यूगो का ‘पेरिस का कुबड़ा’ (हंचबैक आॅफ नात्रेदम)गोर्की की ‘मदर’, अलेक्जंडर कुप्रिन का ‘गाड़ीवालों का कटरा’ (यामा द पिट) और सबसे मनोरंजक सर्वा-रीज़ का ‘विचित्र वीर’ यानि 'डाॅन क्विक्जोट हिन्दी के ही माध्यम से सारी दुनिया के कथा-पात्रों से मुलाकात करना कितना आकर्षक था! लाइब्रेरी खुलते ही पहुँच जाता और जब शुक्ल जी लाइब्रेरियन कहते कि बच्चाअब उठोपुस्तकालय बंद करना हैतब बड़ी अनिच्छा (बेमन)  से उठता। जिस दिन कोई उपन्यास अधूरा छूट जाताउस दिन मन में कसक (टीसपीड़ा) होती कि काशइतने पैसे होते कि सदस्य बनकर किताब इश्यू करा लाताया काशइस किताब को खरीद पाता तो घर में रखताएक बार पढ़तादो बार पढ़ताबार-बार पढ़ता पर जानता था कि यह सपना ही रहेगाभला कैसे पूरा हो पाएगा!

पिता के देहावसान के बाद तो आर्थिक संकट इतना बढ़ गया कि पूछिए मत। फीस जुटाना तक मुश्किल था। अपने शौक की किताबें खरीदना तो संभव ही नहीं था। एक ट्रस्ट से योग्य पर असहाय छात्रों को पाठ्यपुस्तकें खरीदने के लिए कुछ रुपये सत्र के आरंभ में मिलते थे। उनसे प्रमुख पाठ्यपुस्तकें ‘सेकंड-हैंड’ खरीदता थाबाकी अपने सहपाठियों से लेकर पढ़ता और नोट्स बना लेता। उन दिनों परीक्षा के बाद छात्र अपनी पुरानी पाठ्यपुस्तकें आधे दाम में बेच देते और उसमें आने वाले लेकिन उसे विपन्न (गरीब) छात्र खरीद लेते। इसी तरह काम चलता।

लेकिन फिर भी मैंने जीवन की पहली साहित्यिक पुस्तक अपने पैसों से कैसे खरीदीयह आज तक याद है। उस साल इंटरमीडिएट पास किया था। पुरानी पाठ्यपुस्तकें बेचकर बी.ए. की पाठ्यपुस्तकें लेने एक सेकंड-हैंड बुकशाॅप पर गया। उस बार जाने कैसे पाठ्यपुस्तकें खरीदकर भी दो रुपये बच गए थे। सामने के सिनेमाघर में ‘देवदास’ लगा था। न्यू थिएटर्स वाला। बहुत चर्चा थी उसकी। लेकिन मेरी माँ को सिनेमा देखना बिलकुल नापसंद था। उसी से बच्चे बिगड़ते हैं। लेकिन उसके गाने सिनेमा गृह के बाहर बजते थे। उसमें सहगल का एक गाना था, ‘दुख के दिन अब बीतत नाहीं। उसे अकसर गुनगुनाता रहता था। कभी-कभी गुनगुनाते आँखों में आँसू आ जाते थे जाने क्यों! एक दिन माँ ने सुना। माँ का दिल तो आखिर माँ का दिल! एक दिन बोली"दुख के दिन बीत जाएँगे बेटादिल इतना छोटा क्यों करता हैधीरज से काम ले!’’ जब उन्हें मालूम हुआ कि यह तो फिल्म ‘देवदास’ का गाना हैतो सिनेमा की घोर विरोधी माँ ने कहा.अपना मन क्यों मारता हैजाकर पिक्चर देख आ। पैसे मैं दे दूँगी।’’ मैंने माँ को बताया कि ‘किताबें बेचकर दो रुपये मेरे पास बचे हैं।’’ वे दो रुपये लेकर माँ की सहमति से फिल्म देखने गया। पहला शो छूटने में देर थीपास में अपनी परिचित किताब की दुकान थी। वहीं चक्कर लगाने लगा। सहसा देखाकाउंटर पर एक पुस्तक रखी है, ‘देवदास। लेखक शरत चंद्र चट्टोपाध्याय। दाम केवल एक रुपया। मैंने पुस्तक उठाकर उलटी-पलटी। तो पुस्तक-विक्रेता बोला, ‘तुम विद्यार्थी हो। यहीं अपनी पुरानी किताबें बेचते हो। हमारे पुराने गाहक हो। तुमसे अपना कमीशन नहीं लूँगा। केवल दस आने में यह किताब दे दूँगा’’। मेरा मन पलट गया। कौन देखे डेढ़ रुपये में पिक्चरदस आने में ‘देवदास’ खरीदी। जल्दी-जल्दी घर लौट आयाऔर दो रुपये में से बचे एक रुपया छः आना माँ के हाथ में रख दिए।

"अरे तू लौट कैसे आयापिक्चर नहीं देखी?’’ माँ ने पूछा।

"नहीं माँ! फिल्म नहीं देखीयह किताब ले आया देखो।’’

माँ की आँखों में आँसू आ गए। खुशी के थे या दुख केयह नहीं मालूम। वह मेरे अपने पैसों से खरीदीमेरी अपनी निजी लाइब्रेरी की पहली किताब थी। आज जब अपने पुस्तक संकलन पर नज़र डालता हूँ जिसमें हिन्दी-अंग्रेज़ी के उपन्यासनाटककथा-संकलनजीवनियाँसंस्मरणइतिहासकलापुरातत्त्व (पुरानी बातों और इतिहास के अध्ययन तथा अनुसंधान से संबंध रखने वाली विशेष प्रकार की विद्या)राजनीति की हज़ारहा (हज़ार से अधिक) पुस्तकें हैंतब कितनी शिद्दत (अधिकताप्रबलता) से याद आती है अपनी वह पहली पुस्तक की खरीदारी! रेनर मारिया रिल्केस्टीफेन ज़्वीगमोपाँसा,  चेखव,  टालस्टाय,  दास्तोवस्की,  मायकोवस्की, सोल्जेनिस्टिन,  स्टीफेन स्पेण्डरआडेन एज़रा पाउंडयूजीन ओ नीलज्याँ पाल सात्राआॅल्बेयर कामूआयोनेस्को के साथ पिकासोब्रूगेलरेम्ब्राँहेब्बरहुसेन तथा हिन्दी में कबीरतुलसीसूररसखानजायसीप्रेमचंदपंतनिरालामहादेवी और जाने कितने लेखकों, ¯चतकों की इन कृतियों क बीच अपने को कितना भरा-भरा महसूस करता हूँ।

मराठी के वरिष्ठ  कवि वृंदा करंदीकर ने कितना सच कहा था उस दिन! मेरा आॅपरेशन सफल होने के बाद वे देखने आये थेबोलेभारतीये सैकड़ों महापुरुष जो पुस्तक-रूप में तुम्हारे चारों ओर विराजमान हैंइन्हीं के आशीर्वाद से तुम बचे हो। इन्होंने तुम्हें पुनर्जीवन दिया है।’’ मैंने मन-ही-मन प्रणाम किया वृंदा को भीइन महापुरुषों को भी।


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द्वारा :- hindiCBSE.com
आभारएनसीइआरटी (NCERT) Sanchayan Part-1 for Class 9 CBSE