आज सुबह पूर्व में कुछ खास(विशेष) आकर्षक नहीं था। रंग की सारी(पूरी) शोभा (सुन्दरता)उत्तर में जमी (छाई) थी। उस दिशा में तो लाल रंग ने आज कमाल ही कर
दिया था। परंतु बहुत ही थोड़े से समय के लिए। स्वयं पूर्व दिशा ही जहाँ पूरी रँगी
न गई हो, वहाँ उत्तर
दिशा कर-करके भी कितने नखरे कर सकती? देखते-देखते वहाँ के बादल श्वेत (सफ़ेद) पूनी (धूनी रुई की बत्ती) जैसे हो गए और यथाक्रम(क्रम के अनुसार) दिन का आरंभ ही हो गया।
हम आकाश का वर्णन करते हैं, पृथ्वी का वर्णन करते हैं, जलाशयों(तालाबों) का वर्णन करते हैं। पर कीचड़ का वर्णन कभी किसी
ने किया है? कीचड़ में पैर डालना(परेशानी
में फँसना) कोई पसंद नहीं करता, कीचड़ से
शरीर गंदा होता है, कपड़े मैले हो जाते हैं। अपने शरीर पर कीचड़ उड़े (गन्दगी लगे) यह किसी को भी अच्छा नहीं लगता और इसीलिए कीचड़
के लिए किसी को सहानुभूति (हमदर्दी) नहीं होती। यह सब यथार्थ(सच्चाई) है। किंतु तटस्थता(स्थिरभाव) से सोचें तो हम देखेंगे कि कीचड़ में कुछ कम सौंदर्य(सुन्दरता) नहीं है। पहले तो यह कि कीचड़ का रंग बहुत
सुंदर है। पुस्तकों के गत्तों पर, घरों की दीवालों पर अथवा शरीर पर के कीमती
कपड़ों के लिए हम सब कीचड़ के जैसे रंग पसंद करते हैं। कलाभिज्ञ (कला की
सुन्दरता को समझनेवाले) लोगों को भट्टी (आँच) में पकाए हुए मिट्टी के बरतनों के लिए यही रंग बहुत
पसंद है। फोटो लेते समय भी यदि उसमें कीचड़ का, एकाध ठीकरे का(मिट्टी के बर्तन का टुकड़ा) रंग आ जाए
तो उसे वार्मटोन (मटमैला) कहकर विज्ञ(विद्वान) लोग खुश-खुश हो जाते हैं। पर लो , कीचड़ का नाम लेते ही सब बिगड़ (ख़राब हो) जाता है।
नदी के किनारे जब कीचड़ सूखकर उसके टुकड़े हो जाते हैं, तब वे कितने
सुंदर दिखते हैं। ज़्यादा गरमी से जब उन्हीं टुकड़ों में दरारें(फटना) पड़ती हैं और वे टेढ़े हो जाते हैं, तब सुखाए हुए खोपरे(नारियल) जैसे दीख पड़ते हैं। नदी किनारे मीलों तक जब
समतल और चिकना कीचड़ एक-सा फैला हुआ होता है, तब वह दृश्य कुछ कम खूबसूरत नहीं होता। इस
कीचड़ का पृष्ठ(पीछे का) भाग कुछ सूख जाने पर उस पर बगुले और अन्य
छोटे-बड़े पक्षी चलते हैं, तब तीन नाखून आगे और अँगूठा पीछे ऐसे उनके पदचिह्न(पाँव के निशान) मध्य एशिया के रास्ते की तरह दूर-दूर तक अंकित(चिह्नित) देख इसी रास्ते अपना कारवाँ(झुँड) ले जाने की इच्छा हमें होती है।
फिर जब कीचड़ ज़्यादा सूखकर ज़मीन ठोस हो जाए, तब गाय, बैल, पाडे़, भैंस, भेड़, बकरे इत्यादि के पदचिह्न(पाँव के निशान) उस पर अंकित(चिह्नित) होते हैं उसकी शोभा(सुन्दरता) और ही है। और फिर जब दो मदमस्त (मतवाले) पाड़े (भैंस के बच्चे) अपने सींगों से कीचड़ को रौंदकर(कुचलकर) आपस में लड़ते हैं तब नदी किनारे अंकित
पदचिह्नों और सींगों के चिह्नों से मानो महिषकुल(भैंसो के वंश का) के भारतीय युद्ध का (भारत की भूमि पर लड़े युद्ध का) पूरा इतिहास ही इस कर्दम लेख (कीचड़ के लेख) में लिखा हो ऐसा भास(प्रतीत, कल्पित) होता है।
कीचड़ देखना हो तो गंगा के किनारे या सिंधु के किनारे और इतने से तृप्ति (संतुष्टि) न हो तो सीधे खंभात(खम्भात की खाड़ी) पहुँचना चाहिए। वहाँ मही नदी के मुख से आगे
जहाँ तक नज़र पहुँचे वहाँ तक सर्वत्र (हर जगह) सनातन(सदा रहनेवाला) कीचड़ ही देखने को मिलेगा। इस कीचड़ में हाथी
डूब जाएँगे ऐसा कहना, न शोभा दे ऐसी अल्पोक्ति(थोड़ा कहने) करने जैसा है। पहाड़ के पहाड़ उसमें लुप्त (खोना) हो जाएँगे
ऐसा कहना चाहिए।
हमारा अन्न कीचड़ में से ही पैदा होता है इसका जाग्रत भान(वास्तविक ज्ञान) यदि हर एक मनुष्य को होता तो वह कभी कीचड़ का तिरस्कार(घृणा) न करता। एक अजीब(अद्भुत) बात तो देखिए। पंक (कीचड़ का पर्यायवाची) शब्द घृणास्पद(घृणा पैदा करनेवाला) लगता है, जबकि पंकज(कमल का पर्यायवाची) शब्द सुनते ही कवि लोग डोलने और गाने लगते हैं। मल(गन्दगी) बिलकुल मलिन(गंदा) माना जाता है किंतु कमल शब्द सुनते ही चित्त(मन) में प्रसन्नता और आह्लादकत्व(प्रसन्नता का भाव) फूट पड़ते हैं। कवियों की ऐसी युक्तिशून्य (तर्कहीन) वृत्ति(तरीका) उनके सामने हम रखें तो वे कहेंगे कि ‘आप वासुदेव(भगवान कृष्ण) की पूजा करते हैं इसलिए वसुदेव (श्री कृष्ण
के पिता का नाम) को तो नहीं पूजते, हीरे का
भारी मूल्य देते हैं किंतु कोयले या पत्थर(कोयले से ही हीरा बनता है; इस सम्बन्ध से वह हीरे का
पिता हुआ) का नहीं देते और मोती को कंठ में बाँधकर
फिरते हैं किंतु उसकी मातुश्री (मोती जिससे उत्पन्न हुआ अथार्त सीप) को गले में नहीं
बाँधते!’ कम-से-कम इस
विषय पर कवियों के साथ तो चर्चा न करना ही उत्तम!
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द्वारा :- hindiCBSE.com
आभार: एनसीइआरटी (NCERT) Sparsh Part-1 for Class 9 CBSE