Kabeer Sakhi sarlarth
1.
1.
ऐसी बाँणी (बोली) बोलिये, मन का आपा (अहंकार) खोइ
अपना तन(शरीर) सीतल(शाँत) करै, औरन(अन्यों को) कौं सुख होइ।।
सरलार्थ:- कबीर कहते हैं कि हमें प्रेमपूर्वक बात करनी चाहिए। प्रेमपूर्ण
वचनों का प्रयोग करने से सुननेवाले का अहंकार समाप्त हो जाता है और वह हमारी बात
ध्यान से सुनता है। प्रेम से पूर्ण मिठास भरे शब्दों का प्रयोग करने पर बोलने वाले
का हृदय भी शांत रहता है और सुनने वाले को भी अच्छा लगता है। प्रेमपूर्ण मधुर वाणी
के प्रयोग से कोई भी बात बढ़ती नहीं है और आपसी संबंध और प्रेम भी बना रहता है।
2.
कस्तूरी कुंडलि(नाभि) बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।
ऐसैं
घटि-घटि (हर हृदय में) राँम
है, दुनियाँ देखै नाँहि।।
सरलार्थ:- कबीर कहते हैं कि परमात्मा हमारे हृदय में ही
स्थित हैं। जिस प्रकार कस्तूरी-मृग अपनी नाभि में मौजूद पदार्थ ‘कस्तूरी’ से
निरंतर निकलती सुगंध का स्त्रोत अपने अन्दर नहीं खोज पाता औैर उसकी तलाश में इधर-
उधर ही घूमता रहता है, उसी प्रकार से भगवान भी प्रत्येक हृदय में समाए हुए हैं पर
संसार के लोग इसे खोज नहीं पाते हैं क्योंकि वे उन्हें अपने भीतर न खोजकर संसारभर
में खोजते रहते हैं।
3.
जब मैं (अहंकार) था तब हरि (भगवान) नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।
सब अँधियारा(अज्ञान) मिटि
गया, जब दीपक(ज्ञान) देख्या
माँहि।।
सरलार्थ:- कबीरदास जी कहते हैं कि हममें अहंकार
और परमात्मा के प्रति प्रेम, दोनों भावनाएँ एक साथ नहीं रह सकतीं हैं। ये एक दूसरे
की विरोधी भावनाएँ हैं इसलिए जब मन में अहंकार समाया होता है तब प्रेम को स्थान
नहीं मिल सकता है। अहंकार की भावना कुछ भी सीखने, समझने और जानने में रुकावट का
कार्य करती है। जब हम ईश्वर से प्रेम करने लगते हैं तब हमारी अहंकार की भावना
समाप्त हो जाती है। परमात्मा की सत्ता का ज्ञान रूपी दीपक हृदय में विद्यमान
अज्ञानता के अंधकार को दूर कर देता है। कबीर कहते हैं कि परमात्मा रूपी दीपक को अपने
भीतर पाकर अज्ञानता का सारा अन्धकार मिट गया है।
4.
सुखिया सब संसार है, खायै अरू सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरू रोवै।।
सरलार्थ:- सारा संसार सुखी है क्योंकि उसे खाने और
सोने को मिल जाता है परन्तु कबीरदासजी संसार की इस स्थिति को देखकर दुःखी हैं।
मनुष्य को संसार की सुख-सुविधाओं से सुख प्राप्त हो रहा है जिसके कारण वह सुखी है
पर कबीर जानते हैं कि जो अनमोल जीवन परमात्मा को प्राप्त करने में लगाया जा सकता
है उसे मनुष्य व्यर्थ नष्ट कर रहा हैं क्योंकि सांसारिक सुख सच्चा सुख नहीं है ।
सच्चा सुख तो परमात्मा को प्राप्त करने पर ही मिलता है। मनुष्य द्वारा अपने जीवन
को यों व्यर्थ बिताते देखकर कबीर दुःखी हैं; जागते हैं और रोते हैं। (जागना यानि
सबकुछ समझना)
5.
बिरह(बिछुड़ने का दुःख) भुवंगम (साँप के विष की तरह) तन (शरीर में) बसै, मंत्र(उपचार) न लागै कोइ।
राम बियोगी(बिछुड़कर) ना जिवै, जिवै तो बौरा(पागल) होइ।।
सरलार्थ:- परमात्मा से बिछुड़ने के दुःख से मुक्ति का कोई उपाय
नहीं है। वियोग की यह पीड़ा विष की तरह होती है जो शरीर में ऐसे बस जाता है कि किसी
प्रकार के मंत्र आदि इसका उपचार नहीं कर पाते हैं। अपने परमात्मा से बिछुड़कर भक्त
अपना जीवन जी भी नहीं पाता है और यदि जीवन व्यतीत भी करता है तो उसकी स्थिति पागल जैसी
अज्ञानता की हो जाती है। परमात्मा की कृपा के बिना जीवन व्यर्थ ही होता है।
6.
निंदक(बुराई करनेवाला) नेड़ा(समीप) राखिये, आँगणि (आँगन में) कुटी (कुटिया, घर) बँधाइ।
बिन साबण(साबुन) पाँणीं(पानी) बिना, निरमल(साफ) करै सुभाइ(स्वभाव) ।।
सरलार्थ:- कबीर कहते हैं कि हमें अपनी बुराई करने वाले के
प्रति प्यार और आदर की भावना रखनी चाहिए। उसके लिए अपने घर के आँगन में रहने का
स्थान बना देना चाहिए, उसे अपने दिल में जगह देनी चाहिए। उसके माध्यम से हमें अपने
स्वभाव की बुराइयाँ पता चलेंगी और हम उनको दूर कर सकेंगे। क्योंकि जिस प्रकार पानी
और साबुन मैल को निकालने का कार्य करते हैं उसी प्रकार वह भी हमारे स्वभाव के मैल
को निकालने का कार्य करता है और इस प्रकार हमें अच्छा बनाने में सहयोग करता है।
7.
पोथी(किताबें) पढि़-पढि़
जग मुवा, पंडित(विद्वान) भया(हुआ) न कोइ।
ऐकै अषिर(अक्षर) पीव(प्रेम) का, पढ़ै सु पंडित होइ।।
सरलार्थ:- इस संसार में पुस्तक से संचित ज्ञान
के आधार पर विद्वान कहे जाने वाले तो बहुत से लोग हैं पर कबीर कहते हैं कि ऐसे
विद्वान सच्चे विद्वान नहीं होते हैं। इस संसार में प्रेम का महत्त्व है
क्योंकि इसी के कारण सारा संसार एक-दूसरे से जुड़ा रहता है और इसी के कारण वे
परमात्मा को प्राप्त कर पाते हैं। जिसने भी प्रेम के इस एक अक्षर के महत्त्व को
समझ लिया वही सच्चा विद्वान कहे जाने के योग्य है।
8.
हम घर जाल्या(जला लिया) आपणाँ(अपना), लिया मुराड़ा(जलती लकड़ी) हाथि(हाथ में)।
अब घर जालौं(जलना) तास(उनका) का, जे(जो) चलै (चलेंगे) हमारे साथि(साथ में)।।
सरलार्थ:- भक्ति अर्थात् परमात्मा को पाने का
मार्ग आसान नहीं होता है। क्योंकि इस मार्ग पर चलनेवाले को बहुत कष्ट उठाने होते
हैं। इस संसार में काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया, आदि का त्याग कर मन की बुराइयों को
दूर करना होता है। कबीर कहते हैं कि उन्होंने तो स्वयं ही जलती लकड़ी हाथ में लेकर
अपना घर जला लिया है अर्थात् अपने मन की बुराइयों को नष्ट करके स्वयं को परमात्मा
के मार्ग पर लगा लिया है और अब जो इस परमात्मा को पाने के रास्ते पर हमारे साथ
चलना चाहते हैं उनको भी अपने विकारों ( बुराइयों ) का त्याग करना होगा। परमात्मा
को प्राप्त करने के लिए भक्ति मार्ग पर चलने वाले को बहुत कष्ट उठाने होते हैं।
(समाप्त)
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द्वारा :-
hindiCBSE.com
आभार: एनसीइआरटी (NCERT)
Sparsh Part-2 for Class 10 CBSE