एवरेस्ट: मेरी शिखर यात्रा


EVEREST MERI SHIKHAR YATRA 

सरलार्थ
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     एवरेस्ट अभियान दल 7 मार्च को दिल्ली से काठमांडू के लिए हवाई जहाज से चल दिया। एक मजबूत अग्रिम (आगे का) दल बहुत पहले ही चला गया था जिससे कि वह हमारे ‘बेस कैंप’ पहुँचने से पहले दुर्गम (जो जाने में कठिन हो) हिमपात के रास्ते को साफ कर सके ।

     नमचे बाजारशेरपालैंड का एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नगरीय क्षेत्र है। अधिकांश शेरपा इसी स्थान तथा यहीं के आसपास के गाँवों के होते हैं। यह नमचे बाजार ही थाजहाँ से मैंने सर्वप्रथम (सबसे पहले) एवरेस्ट को निहारा (सुंदरता का आनंद लेते हुए देखा)जो नेपालियों में ‘सागरमाथा’ के  नाम से प्रसिद्ध है। मुझे यह नाम अच्छा लगा।

 एवरेस्ट की तरफ गौर से देखते हुएमैंने एक भारी बर्फ का बड़ा फूल (प्लूम) देखाजो पर्वत-शिखर पर लहराता एक ध्वज-सा लग रहा था। मुझे बताया गया कि यह दृश्य शिखर की ऊपरी सतह के आसपास 150 किलोमीटर अथवा इससे भी अधिक की गति से हवा चलने के कारण बनता थाक्योंकि तेज हवा से सूखा बर्फ पर्वत पर उड़ता रहता था। बर्फ का यह ध्वज (झण्डा) 10 किलोमीटर या इससे भी लंबा हो सकता था। शिखर पर जानेवाले प्रत्येक व्यक्ति को दक्षिण-पूर्वी पहाड़ी पर इन तूफ़ानों को झेलना पड़ता थाविशेषकर खराब मौसम में। यह मुझे डराने के  लिए काफी थाफिर भी मैं एवरेस्ट के  प्रति विचित्र रूप से आकर्षित थी और इसकी कठिनतम चुनौतियों का सामना करना चाहती थी।

जब हम 26 मार्च को पैरिच पहुँचेहमें हिम-स्खलन (बर्फ का खिसकना) के  कारण हुई एक शेरपा कुली की मृत्यु का दुःखद समाचार मिला। खुम्भु हिमपात पर जाने वाले अभियान-दल के रास्ते के बाईं तरफ सीधी पहाड़ी के धसकने सेल्होत्से की ओर से एक बहुत बड़ी बर्फ की चट्टान नीचे खिसक आई थी। सोलह शेरपा कुलियों के दल में से एक की मृत्यु हो गई और चार घायल हो गए थे।

इस समाचार के कारण अभियान दल के सदस्यों के चेहरों पर छाए अवसाद (दुःख) को देखकर हमारे नेता कर्नल खुल्लर ने स्पष्ट किया कि एवरेस्ट जैसे महान अभियान (चढ़ाई) में खतरों को और कभी-कभी तो मृत्यु भी आदमी को सहज (स्वाभाविक) भाव से स्वीकार करनी चाहिए।

       उपनेता प्रेमचंदजो अग्रिम दल का नेतृत्व कर रहे थे, 26 मार्च को पैरिच लौट आए। उन्होंने हमारी पहली बड़ी बाधा खुंभु हिमपात की स्थिति से हमें अवगत कराया। उन्होंने कहा कि उनके दल ने कैंप-एक (6000 मी.) जो हिमपात के ठीक ऊपर हैवहाँ तक का रास्ता साफ कर दिया है। उन्होंने यह भी बताया कि पुल बनाकररस्सियाँ बाँधकर तथा झंडियों से रास्ता चिह्नित करसभी बड़ी कठिनाइयों का जायजा (जाँच-पड़ताल) ले लिया गया है। उन्होंने इस पर भी ध्यान दिलाया कि ग्लेशियर बर्फ की नदी है और बर्फ का गिरना अभी जारी है। हिमपात में अनियमित और अनिश्चित बदलाव के कारण अभी तक के किए गए सभी काम व्यर्थ (बेकार) हो सकते हैं और हमें रास्ता खोलने का काम दोबारा करना पड़ सकता है।

     बेस कैंप’ में पहुँचने से पहले हमें एक और मृत्यु की खबर मिली। जलवायु अनुकूल (वातावरण की स्थिति पक्ष में) न होने के कारण एक रसोई सहायक की मृत्यु हो गई थी। निश्चित रूप से हम आशाजनक स्थिति में नहीं चल रहे थे।

एवरेस्ट शिखर को मैंने पहले दो बार देखा थालेकिन एक दूरी से। बेस कैंप पहुँचने पर दूसरे दिन मैंने एवरेस्ट पर्वत तथा इसकी अन्य श्रेणियों (चोटियों) को देखा। मैं भौंचक्की (आश्चर्यचकित) होकर खड़ी रह गई और एवरेस्टल्होत्से और नुत्से की ऊँचाइयों से घिरीबर्फीली टेढ़ी-मेढ़ी नदी को निहारती रही।

 हिमपात अपने आप में एक तरह से बर्फ के खंडों का अव्यवस्थित ढंग से गिरना ही था। हमें बताया गया कि ग्लेशियर के बहने से अकसर बर्फ में हलचल हो जाती थीजिससे बड़ी-बड़ी बर्फ की चट्टानें तत्काल गिर जाया करती थीं और अन्य कारणों से भी अचानक प्रायः खतरनाक स्थिति धारण कर लेती थीं। सीधे धरातल पर दरार पड़ने का विचार और इस दरार का गहरे- चौड़े हिम-विवर (बर्फ़ के गड्ढे) में बदल जाने का मात्रा खयाल ही बहुत डरावना था। इससे भी ज्यादा भयानक इस बात की जानकारी थी कि हमारे संपूर्ण प्रवास के दौरान हिमपात लगभग एक दर्जन आरोहियों(चढ़नेवालों) और कुलियों को प्रतिदिन छूता रहेगा।

     दूसरे दिन नए आनेवाले अपने अधिकांश सामान को हम हिमपात के आधे रास्ते तक ले गए। डा. मीनू मेहता ने हमें अल्यूमिनियम की सीढ़ियों से अस्थायी पुलों का बनानालट्ठों और रस्सियों का उपयोगबर्फ की आड़ी-तिरछी दीवारों पर रस्सियों को बाँधना और हमारे अग्रिम दल के अभियांत्रिकी (यंत्रों की सहायता से किए गए) कार्यों के बारे में हमें विस्तृत जानकारी दी। तीसरा दिन हिमपात से कैंप-एक तक सामान ढोकर चढ़ाई का अभ्यास करने के लिए निश्चित था। रीता गोंबू तथा मैं साथ-साथ चढ़ रहे थे। हमारे पास एक वॉकी-टॉकी थाजिससे हम अपने हर कदम की जानकारी बेस कैंप पर दे रहे थे। कर्नल खुल्लर उस समय खुश हुएजब हमने उन्हें अपने पहुँचने की सूचना दी क्योंकि कैंप-एक पर पहुँचनेवाली केवल हम दो ही महिलाएँ थीं।

अंगदोरजीलोपसांग और गगन बिस्सा अंततः साउथ कोल पहुँच गए और 29 अप्रैल को 7900 मीटर पर उन्होंने कैंप-चार लगाया। यह संतोषजनक प्रगति थी। जब मैं बेस कैंप में थीतेनजिंग अपनी सबसे छोटी सुपुत्री डेकी के  साथ हमारे पास आए थे। उन्होंने इस बात पर विशेष महत्त्व दिया कि दल के  प्रत्येक सदस्य और प्रत्येक शेरपा कुली से बातचीत की जाए। जब मेरी बारी आईमैंने अपना परिचय यह कहकर दिया कि मैं बिलकुल ही नौसिखिया (अनुभवहीन) हूँ और एवरेस्ट मेरा पहला अभियान है। तेनजिंग हँसे और मुझसे कहा कि एवरेस्ट उनके लिए भी पहला अभियान हैलेकिन यह भी स्पष्ट किया कि शिखर पर पहुँचने से पहले उन्हें सात बार एवरेस्ट पर जाना पड़ा था। फिर अपना हाथ मेरे कंधे पर रखते हुए उन्होंने कहातुम एक पक्की पर्वतीय लड़की लगती हो। तुम्हें तो शिखर पर पहले ही प्रयास में पहुँच जाना चाहिए। 15-16 मई 1984 को बुद्ध पूर्णिमा के दिन मैं ल्होत्से की बर्फीली सीधी ढलान पर लगाए गए सुंदर रंगीन नायलॉन के बने तंबू के कैंप-तीन में थी। कैंप में 10 और व्यक्ति थे। लोपसांगतशारिंग मेरे तंबू में थेएन.डी. शेरपा तथा और आठ अन्य शरीर से मजबूत और ऊँचाइयों में रहनेवाले शेरपा दूसरे तंबुओं में थे। मैं गहरी नींद में सोई हुई थी कि रात में 12.30 बजे के लगभग मेरे सिर के पिछले हिस्से में किसी एक सख्त चीज के टकराने से मेरी नींद अचानक खुल गई और साथ ही एक जोरदार धमाका भी हुआ। तभी मुझे महसूस हुआ कि एक ठंडीबहुत भारी कोई चीज मेरे शरीर पर से मुझे कुचलती हुई चल रही है। मुझे साँस लेने में भी कठिनाई हो रही थी।

 यह क्या हो गया था ? एक लंबा बर्फ का पिंड हमारे कैंप के  ठीक ऊपर ल्होत्से ग्लेशियर से टूटकर नीचे आ गिरा था और उसका विशाल हिमपुंज (बर्फ़ का पिण्ड) बना गया था। हिमखंडोंबर्फ के टुकड़ों तथा जमी हुई बर्फ के इस विशालकाय पुंज नेएक एक्सप्रेस रेलगाड़ी की तेजगति और भीषण गर्जना के साथसीधी ढलान से नीचे आते हुए हमारे कैंप को तहस-नहस कर दिया। वास्तव में हर व्यक्ति को चोट लगी थी। यह एक आश्चर्य था कि किसी की मृत्यु नहीं हुई थी।

 लोपसांग अपनी स्विस छुरी की मदद से हमारे तंबू का रास्ता साफ करने में सफल हो गए थे और तुरंत ही अत्यंत तेजी से मुझे बचाने की कोशिश में लग गए। थोड़ी-सी भी देर का सीधा अर्थ था मृत्यु। बड़े-बड़े हिमपिंडों को मुश्किल से हटाते हुए उन्होंने मेरे चारों तरफ की कड़े जमे बर्फ की खुदाई की और मुझे उस बर्फ की कब्र से निकाल बाहर खींच लाने में सफल हो गए।

 सुबह तक सारे सुरक्षा दल आ गए थे और 16 मई को प्रातः 8 बजे तक हम प्रायः सभी कैंप-दो पर पहुँच गए थे। जिस शेरपा की टाँग की हड्डी टूट गई थीउसे एक खुद के बनाए स्ट्रेचर पर लिटाकर नीचे लाए। हमारे नेता कर्नल खुल्लर के शब्दों मेंयह इतनी ऊँचाई पर सुरक्षा-कार्य का एक जबरदस्त साहसिक कार्य था।’’

 सभी नौ पुरुष सदस्यों को चोटों अथवा टूटी हडि्डयों आदि के कारण बेस कैंप में भेजना पड़ा। तभी कर्नल खुल्लर मेरी तरफ मुड़कर कहने लगेक्या तुम भयभीत थीं?

 जी हाँ।'

 क्या तुम वापिस जाना चाहोगी?’

 नहीं,’  मैंने बिना किसी हिचकिचाहट के उत्तर दिया।

 जैसे ही मैं साउथ कोल कैंप पहुँचीमैंने अगले दिन की अपनी महत्त्वपूर्ण चढ़ाई की तैयारी शुरू कर दी। मैंने खानाकुकिंग गैस तथा कुछ ऑक्सीजन सिलिंडर इकट्ठे किए। जब दोपहर डेढ़ बजे बिस्सा आया,  उसने मुझे चाय के लिए पानी गरम करते देखा। कीजय और मीनू अभी बहुत पीछे थे। मैं चिंतित थी क्योंकि मुझे अगले दिन उनके साथ ही चढ़ाई करनी थी। वे धीरे-धीरे आ रहे थे क्योंकि वे भारी बोझ लेकर और बिना ऑक्सीजन के चल रहे थे।

 दोपहर बाद मैंने अपने दल के  दूसरे सदस्यों की मदद करने और अपने एक थरमस को जूस से और दूसरे को गरम चाय से भरने के  लिए नीचे जाने का निश्चय किया। मैंने बर्फीली हवा में ही तंबू से बाहर कदम रखा। जैसे ही मैं कैंप क्षेत्र से बाहर आ रही थी मेरी मुलाकात मीनू से हुई। की और जय अभी कुछ पीछे थे। मुझे जय जेनेवा स्पर की चोटी के ठीक नीचे मिला। उसने कृतज्ञतापूर्वक (आभार मानते हुए) चाय वगैरह (इत्यादि) पी लेकिन मुझे और आगे जाने से रोकने की कोशिश की। मगर मुझे की से भी मिलना था। थोड़ा-सा और आगे नीचे उतरने पर मैंने की को देखा। वह मुझे देखकर हक्का-बक्का (विस्मितआश्चर्यचकित) रह गया। तुमने इतनी बड़ी जोखिम क्यों ली बचेंद्री?  मैंने उसे दृढ़तापूर्वक कहामैं भी औरों की तरह एक पर्वतारोही हूँइसीलिए इस दल में आई हूँ। शारीरिक रूप से मैं ठीक हूँ। इसलिए मुझे अपने दल के  सदस्यों की मदद क्यों नहीं करनी चाहिए। की हँसा और उसने पेय पदार्थ से प्यास बुझाईलेकिन उसने मुझे अपना किट ले जाने नहीं दिया।

 थोड़ी देर बाद साउथ कोल कैंप से ल्हाटू और बिस्सा हमें मिलने नीचे उतर आए। औरहम सब साउथ कोल पर जैसी भी सुरक्षा और आराम की जगह उपलब्ध थीउस पर लौट आए। साउथ कोल ‘पृथ्वी पर बहुत अधिक कठोर’ जगह के  नाम से प्रसिद्ध है। अगले दिन मैं सुबह चार बजे उठ गई। बर्फ पिघलाया और चाय बनाईकुछ बिस्किट और आधी चॉकलेट का हलका नाश्ता करने के बाद मैं लगभग साढ़े पाँच बजे अपने तंबू से निकल पड़ी। अंगदोरजी बाहर खड़ा था और कोई आसपास नहीं था।

 अंगदोरजी बिना ऑक्सीजन के ही चढ़ाई करनेवाला था। लेकिन इसके कारण उसके पैर ठंडे पड़ जाते थे। इसलिए वह ऊँचाई पर लंबे समय तक खुले में और रात्रि में शिखर कैंप पर नहीं जाना चाहता था। इसलिए उसे या तो उसी दिन चोटी तक चढ़कर साउथ कोल पर वापस आ जाना था अथवा अपने प्रयास को छोड़ देना था।

वह तुरंत ही चढ़ाई शुरू करना चाहता था... और उसने मुझसे पूछाक्या मैं उसके  साथ जाना चाहूँगीएक ही दिन में साउथ कोल से चोटी तक जाना और वापस आना बहुत कठिन और श्रमसाध्य (मेहनत से होने वाला होगा! इसके अलावा यदि अंगदोरजी के पैर ठंडे पड़ गए तो उसके लौटकर आने का भी जोखिम(ख़तरा) था। मुझे फिर भी अंगदोरजी पर विश्वास था और साथ-साथ मैं आरोहण की क्षमता (चढ़ाई का सामर्थ्य) और कर्मठता (मेहनती स्वभाव) के बारे में भी आश्वस्त थी। अन्य कोई भी व्यक्ति इस समय साथ चलने के  लिए तैयार नहीं था।

 सुबह 6.20 पर जब अंगदोरजी और मैं साउथ कोल से बाहर आ निकले तो दिन ऊपर चढ़ आया था। हलकी-हलकी हवा चल रही थीलेकिन ठंड भी बहुत अधिक थी। मैं अपने आरोही उपस्कर (कैंप) में काफी सुरक्षित और गरम थी। हमने बगैर रस्सी के  ही चढ़ाई की। अंगदोरजी एक निश्चित गति से ऊपर चढ़ते गए और मुझे भी उनके  साथ चलने में कोई कठिनाई नहीं हुई। और जमे हुए बर्फ की सीधी व ढलाऊ च ट्टानें इतनी सख्त और भुरभुरी थींमानो शीशे की चादरें बिछी हों। हमें बर्फ काटने के फावड़े का इस्तेमाल करना ही पड़ा और मुझे इतनी सख्ती से फावड़ा चलाना पड़ा जिससे कि उस जमे हुए बर्फ़ की धरती को फावड़े के दाँते काट सकें। मैंने उन खतरनाक स्थलों पर हर कदम अच्छी तरह सोच-समझकर उठाया। दो घंटे से कम समय में ही हम शिखर कैंप पर पहुँच गए। अंगदोरजी ने पीछे मुड़कर देखा और मुझसे कहा कि क्या मैं थक गई हूँ। मैंने जवाब दियानहीं। जिसे सुनकर वे बहुत अधिक आश्चर्यचकित और आनंदित हुए। उन्होंने कहा कि पहलेवाले दल ने शिखर कैंप पर पहुँचने में चार घंटे लगाए थे और यदि हम इसी गति से चलते रहे तो हम शिखर पर दोपहर एक बजे तक पहुँच जाएँगे।

     ल्हाटू हमारे पीछे-पीछे आ रहा था और जब हम दक्षिणी शिखर के  नीचे आराम कर रहे थेवह हमारे पास पहुँच गया। थोड़ी-थोड़ी चाय पीने के  बाद हमने फिर चढ़ाई शुरू की। ल्हाटू एक नायलॉन की रस्सी लाया था। इसलिए अंगदोरजी और मैं रस्सी के  सहारे चढे़जबकि ल्हाटू एक हाथ से रस्सी पकडे़ हुए बीच में चला। उसने रस्सी अपनी सुरक्षा की बजाय हमारे संतुलन के लिए पकड़ी हुई थी। ल्हाटू ने ध्यान दिया कि मैं इन ऊँचाइयों के  लिए सामान्यतः आवश्यकचार लीटर ऑक्सीजन की अपेक्षालगभग ढाई लीटर ऑक्सीजन प्रति मिनट की दर से लेकर चढ़ रही थी। मेरे रेगुलेटर पर जैसे ही उसने ऑक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाईमुझे महसूस हुआ कि सपाट और कठिन चढ़ाई भी अब आसान लग रही थी।

 दक्षिणी शिखर के ऊपर हवा की गति बढ़ गई थी। उस ऊँचाई पर तेज हवा के  झोंके  भुरभुरे बर्फ के कणों को चारों तरफ उड़ा रहे थेजिससे दृश्यता (दिखाई देने स्थिति) शून्य तक आ गई थी। अनेक बार देखा कि केवल थोड़ी दूर के  बाद कोई ऊँची चढ़ाई नहीं है। ढलान एकदम सीधा नीचे चला गया है।

मेरी साँस मानो रुक गई थी। मुझे विचार कौंधा कि सफलता बहुत नजदीक है। 23 मई 1984 के दिन दोपहर के एक बजकर सात मिनट पर मैं एवरेस्ट की चोटी पर खड़ी थी। एवरेस्ट की चोटी पर पहुँचनेवाली मैं प्रथम भारतीय महिला थी।

 एवरेस्ट शंकु की चोटी पर इतनी जगह नहीं थी कि दो व्यक्ति साथ-साथ खडे़ हो सकें। चारों तरफ हजारों मीटर लंबी सीधी ढलान को देखते हुए हमारे सामने प्रश्न सुरक्षा का था। हमने पहले बर्फ के फावड़े से बर्फ की खुदाई कर अपने आपको सुरक्षित रूप से स्थिर किया। इसके बादमैं अपने घुटनों के बल बैठीबर्फ पर अपने माथे को लगाकर मैंने ‘सागरमाथे’ के ताज का चुंबन लिया। बिना उठे ही मैंने अपने थैले से दुर्गा माँ का चित्र और हनुमान चालीसा निकाला। मैंने इनको अपने साथ लाए लाल कपड़े में लपेटाछोटी-सी पूजा-अर्चना की और इनको बर्फ में दबा दिया। आनंद के  इस क्षण में मुझे अपने माता-पिता का ध्यान आया।

जैसे मैं उठीमैंने अपने हाथ जोड़े और मैं अपने रज्जु-नेता (दल के नेता) अंगदोरजी के प्रति आदर भाव से झुकी। अंगदोरजी जिन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया और मुझे लक्ष्य तक पहुँचाया। मैंने उन्हें बिना ऑक्सीजन के एवरेस्ट की दूसरी चढ़ाई चढ़ने पर बधाई भी दी। उन्होंने मुझे गले से लगाया और मेरे कानों में फुसफुसायादीदीतुमने अच्छी चढ़ाई की। मैं बहुत प्रसन्न हूँ! कुछ देर बाद सोनम पुलजर पहुँचे और उन्होंने फोटो लेने शुरू कर दिए। इस समय तक ल्हाटू ने हमारे नेता को एवरेस्ट पर हम चारों के होने की सूचना दे दी थी। तब मेरे हाथ में वॉकी-टॉकी दिया गया। कर्नल खुल्लर हमारी सफलता से बहुत प्रसन्न थे। मुझे बधाई देते हुए उन्होंने कहामैं तुम्हारी इस अनूठी उपलब्धि के लिए तुम्हारे माता-पिता को बधाई देना चाहूँगा! वे बोले कि देश को तुम पर गर्व है और अब तुम ऐसे संसार में वापस जाओगीजो तुम्हारे अपने पीछे छोड़े हुए संसार से एकदम भिन्न होगा!                                  

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