26 जनवरी 1931
26 जनवरी: आज का दिन तो अमर दिन है।
आज के ही दिन सारे हिंदुस्तान में स्वतंत्रता दिवस मनाया गया था। और इस वर्ष भी
उसकी पुनरावृत्ति (दोहराव) थी जिसके लिए काफी तैयारियाँ पहले से की गई थीं। गत वर्ष अपना
हिस्सा (रुपयों- पैसों की सहायता) बहुत साधारण था। इस वर्ष जितना अपने दे सकते थे, दिया था। केवल प्रचार में दो हजा़र रुपया खर्च किया गया था। सारे काम
का भार अपने समझते थे अपने ऊपर है, और इसी
तरह जो कार्यकर्ता थे उनके घर जा-जाकर समझाया था।
बड़े बाज़ार के प्रायः मकानों पर राष्ट्रीय झंडा फहरा रहा था और कई
मकान तो ऐसे सजाए गए थे कि ऐसा मालूम होता था कि मानो स्वतंत्रता मिल गई हो।
कलकत्ते के प्रत्येक भाग में ही झंडे लगाए गए थे। जिस रास्ते से मनुष्य जाते थे
उसी रास्ते में उत्साह और नवीनता (नयापन) मालूम होती थी। लोगों का कहना था कि ऐसी सजावट पहले नहीं हुई। पुलिस
भी अपनी पूरी ताकत से शहर में गश्त (पुलिस कर्मचारी का पहरे के
लिए घूमना ) देकर प्रदर्शन कर रही थी। मोटर लारियों (उस समय की मेटाडोर) में गोरखे तथा
सारजेंट प्रत्येक मोड़ पर तैनात थे। कितनी ही लारियाँ शहर में घुमाई जा रही थीं।
घुड़सवारों का प्रबंध था। कहीं भी ट्रैफिक पुलिस नहीं थी, सारी पुलिस को इसी काम में
लगाया गया था। बड़े-बड़े पार्कों तथा मैदानों को पुलिस ने सवेरे से ही घेर लिया था।
मोनुमेंट (स्मारक) के नीचे जहाँ शाम को सभा
होने वाली थी उस जगह को तो भोर (सुबह) में छह बजे से ही पुलिस ने बड़ी संख्या में घेर लिया था पर तब भी कई
जगह तो भोर में ही झंडा फहराया गया। श्रद्धानंद पार्क में बंगाल
प्रांतीय विद्यार्थी संघ के मंत्री अविनाश बाबू ने झंडा गाड़ा तो पुलिस ने
उनको पकड़ लिया तथा और लोगों को मारा या हटा दिया। तारा सुंदरी पार्क में बड़ा-बाज़ार
कांग्रेस कमेटी के युद्ध मंत्री हरिश्चंद्र सिंह झंडा फहराने गए पर वे भीतर न
जा सके। वहाँ पर काफी मारपीट हुई और दो-चार आदमियों के सिर फट गए। गुजराती
सेविका संघ की ओर से जुलूस निकला जिसमें बहुत-सी लड़कियाँ थीं उनको गिरफ़्तार
कर लिया।
11 बजे मारवाड़ी बालिका विद्यालय की लड़कियों ने अपने विद्यालय
में झंडोत्सव मनाया। जानकीदेवी, मदालसा (मदालसा बजाज-नारायण) आदि भी गई थीं। लड़कियों को, उत्सव का
क्या मतलब है, समझाया गया। एक बार मोटर में बैठकर सब तरफ घूमकर देखा तो बहुत अच्छा
मालूम हो रहा था। जगह-जगह फोटो उतर रहे थे। अपने भी फोटो का काफी प्रबंध किया था।
दो-तीन बजे कई आदमियों को पकड़ लिया गया। जिसमें मुख्य पूर्णोदास और पुरुषोत्तम
राय थे।
सुभाष बाबू के जुलूस का भार पूर्णोदास पर था पर यह प्रबंध कर
चुका था। स्त्री समाज अपनी तैयारी में लगा था। जगह-जगह से स्त्रियाँ अपना जुलूस
निकालने की तथा ठीक स्थान पर पहुँचने की कोशिश कर रही थीं।
मोनुमेंट के पास जैसा प्रबंध (व्यवस्था) भोर में था वैसा करीब एक बजे नहीं रहा। इससे लोगों को आशा होने लगी
कि शायद पुलिस अपना रंग न दिखलावे (रोकने के लिए कुछ न करे) पर वह कब रुकने वाली थी। तीन बजे से ही मैदान में हज़ारों आदमियों की
भीड़ होने लगी और लोग टोलियाँ (समूह) बना-बनाकर मैदान में घूमने लगे। आज जो बात थी वह निराली थी।
जब से कानून भंग का काम शुरू हुआ है तब से आज तक इतनी बड़ी सभा ऐसे
मैदान में नहीं की गई थी और यह सभा तो कहना चाहिए कि ओपन लड़ाई थी। पुलिस कमिश्नर
का नोटिस निकल चुका था कि अमुक-अमुक धारा के अनुसार कोई सभा नहीं हो सकती। जो लोग
काम करने वाले थे उन सबको इंस्पेक्टरों के द्वारा नोटिस और सूचना दे दी गई थी कि
आप यदि सभा में भाग लेंगे तो दोषी समझे जाएँगे। इधर कौंसिल की तरफ से नोटिस निकल
गया था कि मोनुमेंट के नीचे ठीक चार बजकर चौबीस मिनट पर झंडा फहराया जाएगा तथा
स्वतंत्रता की प्रतिज्ञा पढ़ी जाएगी। सर्वसाधारण की उपस्थिति होनी चाहिए। खुला
चैलेंज देकर ऐसी सभा पहले नहीं की गई थी। ठीक चार बजकर दस मिनट पर सुभाष बाबू
जुलूस लेकर आए। उनको चौरंगी पर ही रोका गया, पर भीड़ की अधिकता के कारण पुलिस जुलूस को रोक नहीं सकी। मैदान के
मोड़ पर पहुँचते ही पुलिस ने लाठियाँ चलानी शुरू कर दीं, बहुत आदमी घायल हुए, सुभाष बाबू पर भी लाठियाँ पड़ीं।
सुभाष बाबू बहुत ज़ोरों से वंदे मातरम् बोल रहे थे। ज्योतिर्मय गांगुली ने
सुभाष बाबू से कहा, आप इधर आ जाइए। पर सुभाष
बाबू ने कहा, आगे बढ़ना है।
यह सब तो अपने सुनी हुई लिख रहे हैं पर सुभाष बाबू का और अपना विशेष
फासला नहीं था। सुभाष बाबू बड़े ज़ोर से वंदे मातरम् बोलते थे, यह अपनी आँख से देखा (प्रत्यक्ष देखा) । पुलिस भयानक रूप से
लाठियाँ चला रही थी। क्षितीश चटर्जी का फटा हुआ सिर देखकर तथा उसका बहता हुआ
खून देखकर आँख मिच जाती (देखा न जाता था) थी। इधर यह हालत हो रही थी
कि उधर स्त्रियाँ मोनुमेंट की सीढि़यों पर चढ़ झंडा फहरा रही थीं और घोषणा पढ़ रही
थीं। स्त्रियाँ बहुत बड़ी संख्या में पहुँच गई थीं। प्रायः सबके पास झंडा था। जो वालेंटियर (स्वयंसेवक) गए थे वे अपने स्थान से लाठियाँ पड़ने पर भी हटते नहीं थे। सुभाष
बाबू को पकड़ लिया गया और गाड़ी में बैठाकर लालबाज़ार लॉकअप में भेज दिया गया। कुछ
देर बाद ही स्त्रियाँ जुलूस बनाकर वहाँ से चलीं। साथ में बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी हो
गई। बीच में पुलिस कुछ ठंडी पड़ी थी, उसने फिर
डंडे चलाने शुरू कर दिए। अबकी बार भीड़ ज़्यादा होने के कारण बहुत आदमी घायल हुए।
धर्मतल्ले के मोड़ पर आकर जुलूस टूट गया और करीब 50-60 स्त्रियाँ वहीं मोड़ पर बैठ गईं। पुलिस ने उनको पकड़कर लालबाज़ार भेज
दिया। स्त्रियों का एक भाग आगे बढ़ा जिसका नेतृत्व विमल प्रतिभा कर रही
थीं। उनको बहू बाज़ार के मोड़ पर रोका गया और वे वहीं मोड़ पर बैठ गईं। आस-पास
बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई, जिस पर पुलिस बीच-बीच में
लाठी चलाती थी।
इस प्रकार करीब पौन घंटे के बाद पुलिस की लारी आई और उनको लालबाज़ार
ले जाया गया। और भी कई आदमियों को पकड़ा गया। वृजलाल गोयनका जो कई दिन से
अपने साथ काम कर रहा था और दमदम जेल में भी अपने साथ था, पकड़ा गया। पहले तो वह झंडा लेकर वंदे मातरम् बोलता हुआ मोनुमेंट की
ओर इतने ज़ोर से दौड़ा कि अपने आप ही गिर पड़ा और उसे एक अंग्रेज़ी घुड़सवार ने
लाठी मारी फिर पकड़कर कुछ दूर ले जाने के बाद छोड़ दिया। इस पर वह स्त्रियों के
जुलूस में शामिल हो गया और वहाँ पर भी उसको छोड़ दिया तब वह दो सौ आदमियों का
जुलूस बनाकर लाल बाज़ार गया और वहाँ पर गिरफ्तार हो गया। मदालसा भी पकड़ी
गई थी। उससे मालूम हुआ कि उसको थाने में भी मारा था। सब मिलाकर 105 स्त्रियाँ पकड़ी गई थीं। बाद
में रात को नौ बजे सबको छोड़ दिया गया। कलकत्ता में आज तक इतनी स्त्रियाँ एक
साथ गिरफ्तार नहीं की गई थीं। करीब आठ बजे खादी भंडार आए तो कांग्रेस ऑफिस से फोन आया कि यहाँ बहुत आदमी चोट खाकर आए हैं और कई की हालत संगीन (गंभीर) है उनके लिए गाड़ी चाहिए। जानकीदेवी
के साथ वहाँ गए, बहुत लोगों को चोट लगी हुई थी। डॉक्टर
दासगुप्ता उनकी देख-रेख तथा फोटो
उतरवा रहे थे। उस समय तक 67 आदमी वहाँ आ चुके थे। बाद
में तो 103 तक आ पहुँचे।
अस्पताल गए, लोगों को देखने से मालूम
हुआ कि 160 आदमी तो अस्पतालों में पहुँचे और जो लोग घरों में चले गए, वे अलग हैं। इस प्रकार दो सौ घायल ज़रूर हुए हैं । पकड़े गए आदमियों की
संख्या का पता नहीं चला, पर लाल बाज़ार के लॉकअप
में स्त्रियों की संख्या 105 थी। आज तो जो कुछ हुआ वह अपूर्व हुआ है। बंगाल के नाम या कलकत्ता के
नाम पर कलंक था कि यहाँ काम नहीं हो रहा है वह आज बहुत अंश में धुल गया (मिट गया) और लोग सोचने लग गए कि यहाँ
भी बहुत-सा काम हो सकता है।
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