Bal
aparadhi yon ke prati sahaanubhooti nyay-sangat hai - FOR
आदरणीय अध्यक्ष महोदय, मैं सदन की राय से सहमत हूँ कि बाल-अपराधियों के प्रति सहानुभूति न्याय संगत है।
मान्यवर, कोई भी बच्चा जन्मजात अपराधी नहीं होता है। उसे अपराधी बनाती है उसके परिवार की परिस्थितियाँ, उसे अपराधी बनाती है वह स्थितियाँ जिसमें उसमें घुटन और अवसाद को पैदा किया है फिर बच्चे को ही दोषी ठहरा देना न्यायसंगत भी नहीं है और विवेकपूर्ण भी नहीं है।
मान्यवर, यदि माता-पिता जागरुक नहीं होंगे तो संतान में भी जागरुकता पैदा नहीं हो सकता; माता-पिता दोषरहित नहीं होंगे तो संतान भी दोषरहित नहीं होगी; माता-पिता यदि संतान के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने को तैयार नहीं होंगे तो संतान भी जिम्मेदार नहीं होगी। ऐसी स्थितियों में अपराधी संतान के प्रति सहानुभूति न रखी जाए तो यह न्याय संगत बात नहीं होगी।
मान्यवर, जल को जिस साँचे में डाला जाएगा वह उसी पात्र का आकार ले लेगा। बच्चे का हृदय भी उसी प्रकार कोमल होता है। वह तो संसार के अच्छे-बुरे से परे होता है। बस, भावनाओं ज्वार ही उसमें हिलोरें मारता रहता है। यह तो हमारे ऊपर निर्भर है कि हम उसे पत्थर बनाए या देवता ।
मान्यवर, जब गहराई में जाते हैं तो पाते हैं गरीबी, कुपोषण, माता-पिता की सामर्थ्यहीनता, उनकी बीमारी, कुसंगति, अशिक्षा, भावनात्मक कुंठाएँ , बाल-अत्याचार आदि अनके कारण हैं जो किसी बच्चे को अपराधी बनाने की तरफ ले जाते हैं। यदि हम इन कारणों का उपचार कर पाते हैं तो बच्चे को अपराधी बनने से रोका जा सकता है। उपचार तो हर प्रकार के रोग का हो सकता है चाहे फिर मनोरोग ही क्यों न हो। मान्यवर, इंसानों की दुनिया में बालक को अपराधी बनाने वाले कारणों को अनदेखा कर उसे दंड दिया जाना सही नहीं है क्योंकि वह कभी भी किसी अपराध के लिए प्रत्यक्ष रूप से कभी जिम्मेदार ठहराया ही नहीं जा सकता है। उसके प्रति सहानुभूति रखी जाना उचित ही है।
मान्यवर, सच्चाई यही है कि बच्चे जल्दी बिगड़ते हैं और उन्हें सुधारने का प्रयत्न भी किया जाए तो वे जल्दी सुधरते भी हैं। न्याय भी इसी तथ्य पर विश्वास करता है इसलिए उन्हे कठोर सजा न देकर मानसिक रूप से स्वच्छ बनाने का प्रयत्न किया जाना उचित ही समझता है; उन्हें गंभीर सजा न देकर व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाना भी उचित ही समझता है। मान्यवर, जिसके मानसिक व भावात्मक विकास की जिम्मेदारी प्रौढ़ो पर है और उसी के अभाव में बालक अपराधी मान लिया जाए तो यह गलत होगा । आयुविशेष से कम बालक द्वारा किए गए अपराध को सहानुभूति से देखा जाना न्यायसंगत है; गंभीर दण्ड न देकर उसे बाल-सुधार गृह भेजा जाना है ताकि उसे सही मार्गदर्शन के साथ भविष्य का जिम्मेदार नागरिक बनाया जा सके न्याय संगत और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार वाला उचित कदम ही कहा जाएगा। (समाप्त)
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बाल अपराधियों के प्रति सहानुभूति न्याय-संगत है । - विपक्ष
आदरणीय अध्यक्ष महोदय, मैं सदन की राय से सहमत नहीं हूँ कि बाल-अपराधियों के प्रति सहानुभूति न्याय संगत है।
जिसने अपराध किया वह अपराधी ही कहा जाएगा और अपराधी के प्रति सहानुभूति कैसी ? फिर चाहे वह बच्चा ही क्यों न हो। आनेवाले समय में बच्चे मर्डर करने लग जाएँगें तो क्या हम उन्हें बच्चा समझकर माफ कर सकेंगे? क्यों भूल जाते हैं कि समाज के हितों को नुकसान पहुँचानेवाला सामाजिक नहीं कहा जा सकता; क्यों भूल जाते हैं कि समाज में उपद्रव फैलानेवाले का स्वागत सत्कार नहीं होता; क्यों भूल जाते हैं कि एक ही प्रकार के अपराध के लिए सभी को एक ही प्रकार की सजा का प्रावधान होना चाहिए।
बच्चा मासूम होता है , अक्ल से कच्चा होता है, दुनियादारी की समझ उसमें नहीं होती है हमारी इसी सोच ने बच्चों की दुनिया ही बदलकर रख दी है। वह चोरी करे तो बच्चा है; यौन-अपराध करे तो बच्चा है; जुआ खेले शराब पिए तो बच्चा है; अपराधी गुटों को सहयोग करे तो बच्चा है; परिवार वालों के नियंत्रण में न रहे तो बच्चा है यानि बच्चा होना उसके लिए वरदान हो गया कि बस कर्म किए जा फल की चिन्ता छोड दे क्योंकि फल जो उसे मिलेगा औंरों से तो मीठा ही मिलेगा। मान्यवर, क्या हमारा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार उसे सही रास्ते पर ला सकेगा।
मान्यवर, सामाजिक व्यवस्थाओं में जो उस व्यवस्था को नुकसान पहुँचाए वह दंड का भागी होता है । अन्यथा एक दिन ऐसा आएगा जहाँ बच्चों कें लिए हमें अपनी परिभाषा ही बदलनी पड़ेगी। गाँव का बच्चा स्कूल भी नहीं देखता है तो शहर का बच्चा स्कूल तो छोड़ों स्कूलवालों को भी देखकर आ जाता है। गाँव का बच्चा मोबाइल का अ भी न जाने पर शहर के बच्चे को पता है कि मोबाइल से कहाँ-कहाँ क्या सर्च मारा जा सकता है । बच्चे -बच्चे में फर्क है, उनके मानसिक और भावनात्मक विकास में फर्क है इसीलिए समाज का बेड़ा गर्क है। बच्चे-बच्चे में फर्क दूर हो नही सकता पर अपराध तो अपराध है चाहे वह अनजाने में हो, या नासमझी में। अपराध है तो दंड भी है।
मान्यवर, अपराध के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होनी चाहिए। व्यक्ति और बालक के अपराध की सजा में कोई अलग-अलग प्रावधान नहीं होने चाहिए। अपराध तो अपराध है और दंड सभी के लिए समान हो- यही न्याय संगत है।
मान्यवर, न्याय सभी को समान भाव से नहीं देखेगा तो उसे न्याय नहीं कहा जा सकेगा। दस साल का बच्चा पिस्तौल चलाए तो उसके प्रति सहानुभूति रखी जाए और पचास साल का आदमी चलाए तो उसे मृत्युदंड मिले - यह सही नहीं कहा जा सकता क्यों कि सुधारे तो दोनों जा सकते हैं। फिर आज के बच्चे कल के कर्णधार हैं तो क्या ऐसे कर्णधारों के हवाले हम अपना देश छोड़कर जाएँगे ?
मान्यवर, अपराध की सजा होनी चाहिए वह भी एक जैसी। अपराध की कोई उम्र नहीं होती, अपराध का कोई धर्म नहीं होता, अपराध का कोई कोई मजहब नहीं होता, अपराध की कोई जाति नहीं होती, अपराध का कोई भाई नहीं होता, अपराध र्की कोई बहिन नहीं होती, अपराध की कोई माता नहीं होती, अपराध का कोई पिता नहीं होता अपराध तो सिर्फ अपराध होता है और उसके लिए निर्धारित दंड में सिर्फ सजा होनी चाहिए सहानुभूति नहीं। कोई बालक अपराध करे और अपराधी बने तो उसके प्रति सहानुभूति न्यायसंगत नहीं है। (समाप्त)
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