शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक सूत्र समाज के लिए घातक है ।(पक्ष-विपक्ष)

shiksha ke kshetra me vyavsayik sutra samaj ke liye ghatak hai
मुख्य विषय :  शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक सूत्र समाज के लिए घातक है । (पक्ष-विपक्ष)
(परिचयः 2 मिनिट; वक्तव्यः 4 मिनिट; खंडनः 3 मिनिट )
पक्ष :-
परिचय- 2 मिनिट
आप अपनी खिड़की से आकाश को देखें और फिर कहें, मैंने आकाश देख लिया! यह तो पूर्ण आकाश का देखना नहीं है, अपितु उतने से ही आकाश को देखना है, जितना उस खिड़की में से दिखाई देता है। शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक सूत्र समाज के लिए घातक है - आइए, सदन के इस मत को खुले आकाश को देखने की दृष्टि से देखें। शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक सूत्र की हम बात कर रहे हैं तो इसका संदर्भ क्या है? निश्चित है, इसका अभिप्राय शिक्षा के व्यवसायीकरण से है न कि व्यावसायिक शिक्षा दिए जाने से । व्यवसाय एक गलाकाट प्रतिस्पर्धा है, जिसमें सिर्फ और सिर्फ अपने लाभ की बात सोची जाती है, जिसमें सिर्फ और सिर्फ दूसरों से धनार्जन करने की बात है। और इसके लिए लुभावने विज्ञापनों का, लुभावनी बातों का और लुभावने तथ्यों का एक ऐसा संसार हमारे चारों तरफ रच दिया जाता है कि हम उसमें किसी भी प्रकार से फंस जायें, उससे बचकर न जा सके। यही बात आज शिक्षा के क्षेत्र में लागू हो रही है। एक से बढ़कर एक संस्थान अपनी पहचान इस प्रकार दे रहे हैं कि उनसे बेहतर कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। जिस क्षेत्र में आपको विशेषज्ञ होना है, उस से संबंधित हर प्रकार की शिक्षा वहाँ सुलभ है। फीस दें, प्रवेश लें और पढ़े। और, जब चार साल बाद छात्र अच्छे अंक हासिल करके निकलता है, तब उसे पता लगता है कि मेरी पढाई के अनुसार जमाना नहीं है। जमाना उससे कहीं और आगे निकल चुका है। यानी, एक भ्रमजाल जो उसके चारों तरफ बुना गया वह उसे आनेवाले समय के लिए तैयार नहीं करता। अपनी वर्तमान की शिक्षा से हम अपना स्तर एक-दो सालों के लिए बनाकर तो भले ही रखलें, पर उस शिक्षा के दमपर आजीवन नहीं चला जा सकता क्योंकि व्यावसायीकरण से ग्रसित ऐसी शिक्षा मनुष्य को जीना नहीं सिखाती, वह मनुष्य को निर्धारित साँचे में ढालने का कार्य कर रही है। वह उसे पूर्ण आकाश नहीं अपितु ऐसा आकाश दे रही है जो एक खिड़की से देखा गया है। ऐसी शिक्षा में उसका मनुष्यत्व भी खो जाता है और तब उसके प्रगति के रास्ते नहीं खुलते हैं, तब पतन के रास्ते खुलते हैं।

वक्तव्य - 4  मिनिट
पिछले 10 सालों में शिक्षा का व्यावसायीकरण जिस प्रकार से हुआ है, उसने एक विशेष प्रकार की प्रतियोगिता को जन्म दिया है और वह है- दूसरों को हराने में आनन्द । मान्यवर, जो शिक्षा हममें ऐसी प्रतियोगिता को जन्म देती है कि हम दूसरों से आगे निकलने में सुख का अनुभव करने लगें, वह शिक्षा कुछ भी बनाए पर मानव नहीं बनाती। जो शिक्षा दूसरों को हराने में हमें आनन्द देती है वह कुछ भी बनाए पर मानव नहीं बना सकती, वह शिक्षा जो सबको साथ लेकर चलने की विचारधारा पर आधारित नहीं है, वह कुछ भी बनाए पर इंसान नहीं बना सकती। ऐसी शिक्षा ईर्ष्या पैदा करती है, जलन पैदा करती है, दूसरों को नीचा दिखाने की भावना पैदा करती है, मनुष्य को मानसिक और वैचारिक दृष्टि से बीमार बनाती है, ऐसी शिक्षा व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का साधन नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव जाति के विनाश का साधन मात्र ही हो सकती है।

मान्यवर, 'विद्या चः विमुक्तये।' अर्थात् विद्या जो मनुष्य को मुक्त करे | उसे मुक्त करे विकारों से, आत्मिक उन्नति में बाधक बंधनों से, उसे मुक्त करे अज्ञानता से, उसे मुक्त करे अविद्या से। प्रश्न जो उपस्थित है, वह है कि क्या शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक सूत्र समाज के लिए घातक है? शिक्षा रोजगार का मुकाबला करने के लिए, रोजगार प्रदान करवाने के लिए साधन-मात्र बनी हुई है। जो शिक्षा आत्मिक और मानसिक विकास का साधन है, वह सिर्फ रोजगार हासिल करने का साधन बन जाए तब पीढ़ी के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगे होते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक सूत्र इस प्रकार समाज को पंगु बनाने का कार्य कर रहे हैं। मेरे विपक्षी वक्ताओं को समझना चाहिए कि शिक्षा सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान नहीं है। गुरुजनों का कर्तव्य माता-पिता ही नहीं प्रभु से भी बढ़कर है। परिवार के संस्कारों की शिक्षा का विश्वविद्यालय माँ है, सांसारिक और सामाजिक शिक्षा की प्रथम पाठशाला पिता है; भौतिक और आत्मिक उन्नति की शिक्षा जातक को अपने समाज, गुरुजनों और अपने से बड़ों से मिलती है, व्यावहारिक जीवन की शिक्षा देने के लिए संसार पहले एक पाठशाला की भूमिका अदा करता है और फिर रंगमंच की। और मान्यवर, माता-पिता अपने बच्चों को इन स्कूलों के हाथों में सौंप देते है कि ये स्कूल हमारे दिल के टुकड़े को भविष्य का मुकाबला करनेवाला बनाएगा। पर वहाँ प्रतिभा और योग्यता निखारने के लिए धन बटोर तो लिया जाता है और बदले मेंएक ऐसा बेटा मिलता है जिसे प्रवेश दिलाया था तब पानी की तरह निर्मल था और आज उसकी प्रतिभा और योग्यता को निखारने की बजाय ज्ञान का पुतला, रटे-रटाए नियमों व सिद्धांतों का पुतला बना दिया गया है। अफसोस है, धन कमाने की दौड़ में शिक्षा के व्यवसायीकरण ने उसे उस मुकाम पर पहुँचा दिया है जहाँ आत्मा मार दी जाती है, जहाँ गुरु के साथ व्यवहार में अहंकार का टकराव पलता है; जहाँ ज्ञान, धन देकर खरीदा जाता है; जहाँ दूसरों को हराने में आनन्द का अनुभव होता है।

मान्यवर, छात्र जीवन से जुड़ी कौन-सी वस्तु ऐसी है जिसका व्यावसायीकरण नहीं किया गया है। कौन-सी चीज कहाँ से ली जानी है, यह सब स्कूल तय करते हैं। कपड़े स्कूल तय करेगा, जूते स्कूल तय करेगा, किताबें स्कूल तय करेगा, कॉपियाँ स्कूल तय करेगा ? बस, अपनी जिंदगी जीने के अलावा सबकुछ तो स्कूल ही निर्धारित कर रहा है। गाँवों और शहरों में स्कूलों का अम्बार लगा है। शानदार नामों के पीछे स्कूल का चेहरा दिखाता हूँ, ये वो स्कूल हैं जो गुड को गुड़ और गुड़ से गोबर बनाते हैं, गंगा को मध्यप्रदेश में बहाते हैं, उनके लिए भैंस बड़ी हैं क्योंकि दिमाग में अक्ल तो समा सकती है पर भैंस नहीं, शुक्रवार फाइड हो जाता है और छात्र टरमाइड हो जाता है।
मान्यवर, अपने विपक्षी वक्ताओं से पूछना चाहता हूँ, शिक्षा के द्वारा सामाजिक सुधार के नाम पर हजारों ट्रस्ट संचालित हो रहे हैं। क्या इनमें आपको व्यवसाय दिखाई नहीं देता? इनके पीछे भी व्यवसाय है। यह वह दुनिया है, जहाँ शिक्षा के नाम पर झूठ और फ़रेब का रोज़गार फूलता है। जहाँ शिक्षा प्राप्त करने में भी व्यावसायिक लाभ है और उसकी व्यवस्था में भी। सामाजिक सुधार के नाम पर इन ट्रस्टों में दान दिए जाने पर 80जी के तहत आय में छूट प्राप्त होती है। चैक दो, 50 प्रतिशत या उससे अधिक नगद भी ले लो और आयकर में छूट भी प्राप्त कर लो। मैं अपने विपक्षी वक्ताओं से पूछना चाहता हूँ कि क्या यह एक ऐसी व्यवस्था नहीं है, जिसका सरोकार विकास से नहीं है? क्या यह सामाजिक विकास के नाम पर फर्जीवाड़ा नहीं है, जिसने शिक्षा को, शिक्षा की व्यवस्था को व्यावसायिक बना दिया है?
खंडन -3 मिनिट
मान्यवर, युवाओं में जितना आक्रोश, व्यवस्था के प्रति घृणा आज देखने में आ रही है उसका कारण यही है कि हमने पुस्तकीय शिक्षा को व्यावहारिक शिक्षा से श्रेष्ठ मानने की भूल की है। पिछले कई दशकों से हम यही भूल करते आ रहे हैं। इसका परिणाम है कि युवा स्वयं को असहाय महसूस करने लगा है। पिछले पचास सालों से आज तक हम न तो जातिगत द्वेष को खत्म कर पाए हैं और न ही सामाजिक भिन्नता को। मैं अपने विपक्षी वक्ताओं से पूछना चाहता हूँ कि संगीत का आनन्द जैसे भेद को तिरोहित कर देता है क्या वैसे ही प्रेम को देश के नागरिकों में स्थापित करने में कामयाब हुए हैं ? क्यों हुआ है ऐसा? क्योंकि शिक्षा के व्यावसायीकरण ने हमारी सोच को संकुचित कर दिया है; क्योंकि शिक्षा के व्यावसायीकरण के चलते दिमाग में भरा जा रहा है कि अच्छी डिग्री अच्छा रोजगार देगी; क्योंकि हम सोच रहे हैं कि अच्छी डिग्री होना व्यक्ति के सर्वगुण सम्पन्न होने का प्रमाण है। शिक्षा के व्यावसायिक रूप ने हमारे भीतर यह गलत सोच पैदा की है। चिकित्सा की वह डिग्री होना बेकार है जिससे व्यक्ति में दूसरों की सेवा किए जाने की भावना न पैदा होती हो, इंजीनीयर की वह डिग्री बेकार है जिससे समाज और देश का हित किए जाने की भावना न पैदा होती हो, शिक्षक की वह डिग्री बेकार है जो भावी नागरिकों का निर्माण न कर सकती हो। सच्चाई यही है कि शिक्षा हमारी जन्मजात रूचियों को निखारने का माध्यम होनी चाहिए, वह हमारी वैचारिक और मानसिक सोच का विकास करने का माध्यम होनी चाहिए है, वह हमें परिपक्व बनाने का माध्यम होनी चाहिए। पहले ज्ञान भावनाओं से जुड़कर परंपराओं में बहता था। हमारा जीवन पिता के गोत्र या फिर गुरु के गोत्र के आधार पर पहचान बनाता था। परन्तु शिक्षा के व्यावसायीकरण ने गुरु और शिष्य के संबंधों में भी व्यवसाय भावना पैदा करती है। ज्ञान बिक रहा है। एक बेच रहा है, दूसरा खरीद रहा है। ज्ञान को खरीदने और बेचने की संस्कृति हमारी नहीं थी। आधुनिकता की दौड़ में पाश्चात्य जगत की ज्ञान-खरीदने बेचने की प्रणाली हमारी विरासत बनने जा रही है। अकड़ शव में होती है। आज के विद्यार्थी को शव मत बनाइए, शिव बनाइए तब शिक्षा का यह व्यावसायिक सूत्र समाज के लिए घातक नहीं होगा।

विपक्ष:-
विपक्ष में विषय हुआ - शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक सूत्र समाज के लिए घातक नहीं हैं।
परिचय- 2 मिनिट
शिक्षा मानव जीवन के साथ प्रारंभ से ही जुड़ी हुई है। यह बात अलग है, कि उस काल में मानव भले ही गुफाओं में रहता हो पर, उस समय भी, वह हमेशा नई-नई बातों को जानने में लगा हुआ था। उसके बाद, जैसे-जैसे वह एक सामाजिक प्राणी होने लगा, वैसे -वैसे उसे उस समाज के अनुरूप, आवश्यक बातों को सिखाने की व्यवस्था का निर्माण भी प्रारंभ हुआ। उसकी जिम्मेदारी बढ़ती गई और आवश्यकता हुई, कि, तात्कालिक आवश्यकता के अनुरूप नगर के बच्चों और युवाओं को शिक्षा प्रदान की जाए ताकि वे भविष्य में अच्छे सामाजिक नागरिक बनें । सम्भवतः यहीं से उस शिक्षा व्यवस्था का जन्म हुआ जिसे कालांतर में हमने गुरुकुल और उसके बाद स्कूल, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि के नाम से स्थापित किया। आवश्यकता आविष्कार की जननी है अतएव जैसे-जैसे मानव सभ्यता विकास की सीढियाँ चढ़ती गई, शिक्षा और उसकी व्यवस्था, उतनी ही उद्देश्यपरक होती चली गई । मानव जीवन की यात्रा, गफाओं से निकल कर आज, शहरी मकाम पर पहुँच गई। सामाजिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन होता ही रहा है, और आगे भी होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं हैं कि, वर्तमान की सामाजिक व्यवस्था, और मानव जीवन के विकास का मूल, उसकी शिक्षा, और उसकी, आर्थिक सम्पन्नता से जुड़ा हुआ है। मान्यवर, व्यवसाय कहाँ नहीं है? मैं इज्जत देता हूँ तो इज्जत कमाता हूँ; कंसलटेंसी लेता हूँ तो पैसा देता हूँ; यात्रा की सुविधा चाहता हूँ तो टिकट भी उसी हिसाब से खरीदता हूँ, फिर यदि श्रेष्ठ शिक्षा चाहता हूँ तो उसकी कीमत चुकाने से परहेज क्यों? यदि आप ज्ञानवान हैं, बुद्धिमान हैं, अच्छा प्रतिशत लाते हैं, अनुशासित हैं तो बहुत-सी सामाजिक संस्थाएँ, बहुत-सी सरकारी योजनाएँ आपका सहयोग देने के लिए तैयार हो जाती हैं। स्थिति यदि ऐसी है, तब कैसे कहूँ कि शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक सूत्र समाज के लिए घातक है। मान्यवर, इस अर्थ-प्रधान युग में क्या कोई और विकल्प है, जो हमारे जीवन को उन्नति की तरफ लेकर जाए? क्या साधारण से साधारण आदमी भी बिना शिक्षा के रोजगार प्राप्त कर सकता है? क्या जो जितना शिक्षित है, वह समाज में उतना ही सम्मान का पात्र नहीं बन जाता?
वक्तव्य - 4 मिनिट
मान्यवर शिक्षा का क्षेत्र बहुत व्यापक है विद्यालयों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों आदि में पुस्तकीय ज्ञान बाँटना ही शिक्षा नहीं है। एक कारीगर भी अपने शिष्य तैयार करता है; एक पहलवान भी अपने शिष्य तैयार करता है; कितने ही कार्य हैं, जिनकी शिक्षा उनके गुरुओं द्वारा दी जाती है और उसके लिए धन लिया जाता है। इसमें बुराई भी क्या है? ज्ञान बिकता नहीं है। यदि विपक्षी वक्ता कहते हैं, कि ज्ञान बिकता है, तो यह गलत है। बिकती तो वह मेहनत है, जो ज्ञान देने में लगती है या ज्ञान प्राप्त करने में लगती है। उस मेहनत की कीमत अदा क्यों नहीं होनी चाहिए? क्या शिक्षा के आदान-प्रदान के माध्यम से धन अर्जन करना गलत है?

हस्तकला के कार्य में सिद्धहस्त पिता या माता बच्चे को अपनी कला सिखाते वे इस प्रकार अपने अनुभवों और ज्ञान को अपनी पीढ़ी में बाँटते हैं। मेरे विपक्षी वक्ताओं को स्मरण रखना चाहिए कि पुस्तकीय ज्ञान का आधार भी, यही अनुभवजनित शिक्षा ही है। क्या यह अनुभवजनित शिक्षा रोजगार का साधन नहीं है? मान्यवर, प्रत्येक शिक्षा व्यक्ति में निपुणता को पैदा करती है और निपुणता व्यक्ति को समाज में स्थान दिलाने का ही काम नहीं करती वरन् जीवनयापन का मार्ग भी खोलती है। यदि हमारी शिक्षा उद्देश्यपरक नहीं होती तो हमारी सामाजिक व्यवस्था में चिकित्सक, इंजीनीयर, प्राचार्य, निदेशक आदि अन्य विशेषज्ञ भी नहीं होते।

मान्यवर, शिक्षा का नाम आते ही एक ओर कबीर, तुलसी, रैदास, सधना, शकुंतला, पाइथोगोरस आदि का विचार आता है और दूसरी ओर जगदीश बसु, श्री वेंकटरामन, ए पी जे अब्दुल कलाम आदि अनेक आँखों के सामने आते हैं। तब एक ही विचार आता है कि शिक्षा का माध्यम चाहे कोई भी हो वह सबके लिए आत्मिक, मानसिक और भौतिक उन्नति का मार्ग खोलती है। आज मानसिक और भौतिक उन्नति का मार्ग शिक्षा से जुड़ा हुआ है। यदि आपके पास शैक्षिक डिग्रियाँ हैं तो आपके पास उस पद पर बैठने की पात्रता है। मैंने कहा है, यदि आपके पास शैक्षिक डिग्रियाँ हैं तो आपके पास उस पद पर बैठने की पात्रता है, वह रोजगार को पाने का माध्यम है। पर इन संस्थाओं में सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान ही नहीं दिया जाता अपितु आपकी वैचारिक, मानसिक योग्यता, सूझबूझ और दूरदर्शिता आदि अनेक प्रतिभाओं का संस्कार किया जाता है ताकि सिर्फ डिग्रीधारी ही न बनें, एक संस्कारित, सभ्य नागरिक भी बनें।

मान्यवर, वह जमाना गया जब गुरुकुल होते थे, गुरु ही बुनियादी ज्ञान देनेवाला व्यक्ति हुआ करता था। आज बहुत-सी सूचनाएँ शिक्षक के पास हैं तो बहुत-सी ऐसी सूचनाएँ भी हैं जो उसके पास नहीं होती है। तकनीकी विकास ने उस स्थ पर लाकर खड़ाकर दिया है जहाँ ज्ञान के स्त्रोत बहुतेरे हो गए हैं, दुनिया बहुत छोटी हो गई है और शिक्षार्थियों के आगे पहले के जमाने की अपेक्षा बहुत बड़ा संसार भी है, आगे बढ़ने के अनन्त अवसर भी हैं और समाज के छोटे से हिस्से को नहीं अपितु विश्व को राह दिखाने का रास्ता खुला है। यह सब उस क्रांति के कारण हुआ है जो तकनीक के क्षेत्र में आई है। मान्यवर, बहुत साधारण-सी बात है यदि जीवन में चुनौती न हो तो आगे निकलने में मजा नहीं आता है। समस्याएँ नहीं आती हैं तो रास्ते भी नहीं खोजे जाते हैं | यदि शिक्षा के क्षेत्र व्यावसायिक हो गए हैं तो उनमें भी तो प्रतिस्पर्धा है? वे भी तो एक-दूसरे से आगे जाना चाहते हैं और इस अवस्था में लाभ किसे हो रहा है? देश के युवाओं को ही इसका लाभ मिल रहा है। क्या ये युवा हमारे समाज के हिस्से नहीं हैं ? मान्यवर, हमारा समाज बहुत बड़े परिवर्तन से गुजर रहा है- इसमें कोई संदेह नहीं है। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, विवाह में धार्मिक बंधन खत्म हो रहे हैं, रोजगार के नित नए क्षेत्र पैदा हो रहे हैं, दिन-प्रतिदिन हम भावना प्रधान कम और तर्क प्रधान बनते जा रहे हैं। पहले टी वी था अब मोबाइल है जिसने सोचने, समझने देखने की दृष्टि ही बदल दी है। रिश्तों में वह ताज़गी नहीं है क्योंकि हमारे चारों तरफ एक ऐसी चकाचौंध भरी दुनिया पैदा हो गई है, जहाँ हम बहुजन हिताय, बहुजन सखाय से आत्मकेन्द्रित हो गए हैं। धर्म का पालन करनेवाला धर्म की मर्यादाओं को तोड़ रहा है, कानन का पालनकरनेवाला कानून तोड़ रहा है, जान बचानेवाला जान जाने पर दुखी नहीं होता है। भारत ही नहीं विश्व की किसी भी शिक्षा ने इंसान को हैवान बनने के लिए नहीं कहा। किसी ने भी मनुष्यत्व त्यागने के लिए नहीं कहा।। मान्यवर, समाज में विसंगति पनपने के लिए उत्तरदायी शिक्षा का व्यावसायीकरण नहीं है अपितु माता-पिता का अपने बच्चों को अच्छे संस्कार नहीं दे पाना है। समाज में विसंगति पनपने के लिए उत्तरदायी शिक्षा का व्यावसायीकरण नहीं है अपितु उस सोच का होना है जो कि कम मेहनत में, कम समय में बहुत सारा बटोरलेने की भावना को पैदा करती है। समाज में विसंगति पनपने के लिए उत्तरदायी हमारी जनसंख्या का बेहिसाब बढ़ना है, जिसके कारण सभी संसाधनों का लाभ उठाने में समर्थ नहीं हो पाते हैं; समाज में विसंगति पनपने के लिए उत्तरदायी हमारी जलवायु में आ रहा अनियमित बदलाव है जो लोगों के घर छीन लेता है और वे पेट पालने के लिए अराजक हो जाते हैं |  मान्यवर, शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक सूत्र समाज के लिए घातक नहीं है।
खंडन -3 मिनिट
मान्यवर, जब संसार में बच्चा आता है तब वह एक दम कोरा होता है। तब वह ज्ञान लेकर पैदा नहीं होता, तब वह धारणा लेकर पैदा नहीं होता है | धीरे-धीरे वह चीजों को समझने लगता है और माता-पिता भी उसे समझाने लगते हैं। कुछ वह देखकर, सुनकर, छूकर समझने लगता है। माँ कहती है, देखो चन्दा मामा आ गए। बच्चा भी लम्बे समय तक वही दोहराता रहता है। बच्चे के भीतर माता-पिता और समाज भी उस ज्ञान को डाल रहे हैं जो उनका है, वे उसे अपनी दृष्टि से संसार को दिखाना चाहते हैं। इस तरह माता-पिता और समाज उसकी स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया रोक देते हैं और अपनी धारणाओं का गुलाम बना देते हैं। वह बच्चा संसार को कुछ नया दे सकता था पर उसे स्वाभाविक नहीं रहने देते हैं। जब तक बच्चा बड़ा होता है। तब तक वह बहुत-सी बेड़ियों में जकड़ दिया जाता है। यानी, वह आसमान को खिड़की से देखता है और सोचता है कि उसने पूरा आसमान देख लिया। पर सच्चाई कुछ और होती है। उसने उतना ही आसमान देखा होता है जो उस खिड़की से दिखाई देता है। हम कल्पना कर सकते हैं कि जब वह खुले आसमान में आता है, तब उसकी स्थिति कैसी हो जाती है। रिश्तों की अहमीयत उसे समझाई जाती है पर बड़े होने पर उनमें वह गर्माहट नहीं मिलती है; उसे सच्च बोलने का पाठ पढ़ाया जाता है, पर वह अपने आस-पास झूठ का वातावरण पाता है; यहाँ तक कि वह अब अपनी मर्जी के अनुसार कपड़े भी नहीं पहन पाता है। मान्यवर, समाज के वातावरण की, बच्चों के परवरिश की बुनियाद गलत है तो उसका दोष हम शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक सूत्रों को कैसे दे सकते हैं।

मान्यवर, समाज के विकास के लिए सामाजिक व्यवस्थाएँ, सामाजिक संसाधन भी उसी के अनुरूप कार्य करते हैं जैसा समाज का ढाँचा हैं। वहाँ बात प्रेम की, करी जाती है पर सिखाया जाता है - दूसरों से आगे निकलना, दूसरों को हराना। हम जानते हैं कि प्रेम में घृणा नहीं होती, प्रेम में अलगाव नहीं होता पर पूरी व्यवस्था बात प्रेम की करती है पर सिखाती घृणा है तब कैसे कहूँ कि शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक सूत्र समाज के लिए घातक हैं। क्यों कि ये सूत्र जो घातक है वे शिक्षा के व्यावसायिक होने से संबंध नहीं रखते हैं उनका संबंध तो हमारी विचारधाराओं से हैं जो कुंठित हो रही हैं, उनका संबंध उन परंपराओं से है। जिन्हें हम हजारों सालो से ढोते आ रहे हैं, उनका संबंध समाज की उन बेड़ियों से हैं जो आकाश को खिड़की में से देखने के लिए बाध्य करती हैं, उनका संबंध हममें पैदा कर दी गई उस अधीरता से जिसमें हम बहुत कम समय में ही अधिक से अधिक हासिल करना चाहते हैं।