सरलार्थ:- मधुर - मधुर मेरे दीपक जल

- महादेवी वर्मा 

मधुर  मधुर  मेरे  दीपक  जल!
         युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल, 
         प्रियतम का पथ आलोकित कर! 

सरलार्थ :-  मधुर मधुर मेरे दीपक कविता में दीपक आत्मा का प्रतीक है और प्रियतम परमात्मा का। कवयित्री आत्मा को विश्वास  व प्रेम की भावना को बनाए रखने के लिए कहती हैं। दीपक को जलाए रखना यहाँ विश्वास और प्रेम को बनाए रखना है। जब हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम और विश्वास की भावना होती है तब ही प्रियतम अर्थात् परमात्मा सहज ही उस तक पहुँच पाते हैं। कवयित्री प्रेम और  विश्वास की भावना को संसार के प्रत्येक कालखंड (प्रत्येक युग, प्रत्येक दिन, प्रत्येक क्षण व प्रत्येक पल) में बनाए रखने के लिए कहती हैं। दीपक का जलना जीवन को प्रकाशवान बनाए रखना है।

सौरभ फैला  विपुल  धूप  बन,
मृदुल मोम सा घुल रे मृदु तन,
         दे  प्रकाश  का सिंधु    अपरिमित, 
         तेरे  जीवन  का  अणु  गल  गल!

पुलक  पुलक  मेरे  दीपक  जल!

सरलार्थ :-  ईश्वर के प्रति प्रेम और आस्था सुगंध फैलाने वाली धूप के समान है। कवयित्री आत्मा से कहती हैं कि धूप के समान बनकर सर्वत्र प्रेम और आस्था का प्रसार करो। इस कार्य को करने में अपना शरीर इसी प्रकार समर्पित कर दो जैसे कोमल मोम प्रकाश देने के लिए स्वयं को घुला (मिटा, गला) देता है। तुम भी संसार को ज्ञान के अनंत सागर रूपी प्रकाश से भर दो। ( ज्ञान का प्रकाश समुद्र के समान अनंत है।)   संसार में इस कार्य (प्रेम, आस्था और ज्ञान फैलाने) को करने में तेरे जीवन का प्रत्येक अंश समर्पित हो जाए। मोम स्वयं जलकर अर्थात् स्वयं कष्ट उठाकर ही रोशनी देता है। स्वयं कष्ट उठाकर दूसरों के जीवन में  विश्वास, प्रेम, ज्ञान का प्रकाश फैलाना सरल कार्य नहीं है। इसलिए आत्मा रूपी दीपक से स्वयं कष्ट उठाकर दूसरों के जीवन में प्रकाश भरने के कार्य को प्रसन्नतापूर्वक किए जाने के लिए कहती है। (स्वयं दुख उठाकर दूसरों के जीवन को अच्छा बनाना आसान कार्य नहीं होता है।)

सारे  शीतल   कोमल   नूतन, 

माँग  रहे  तुझसे  ज्वाला-कण
          विश्व-शलभ सिर धुन कहता 
         ‘मैं हाय न जल पाया तुझ में मिल’!

सिहर  सिहर  मेरे  दीपक  जल!

सरलार्थ :-  इस संसार में शीतल वे हैं जो जीवन में आगे बढ़ने का प्रयास करने में असफल हो गए, परमात्मा तक नहीं पहुँच पाए;  कोमल वे हैं जो जीवन की परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार हो रहे हैं और नूतन वे हैं जो जीवन के मार्ग पर अभी-अभी नए ही आए हैं। अर्थात् संसार की सारी चेतना (Awareness) आगे बढ़ने के लिए जीवन का प्रकाश चाहती है। (( संसार में सभी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा व उमंग की आवश्यकता होती है। जब एक हृदय (आत्मा) में  विश्वास, प्रेम, आस्था, ज्ञान की भावना होती है तब वह सारे संसार को विश्वास, प्रेम, आस्था, ज्ञान से पूर्ण कर सकता है और जब ससांर में विश्वास, प्रेम, आस्था, ज्ञान हो तो वह प्रत्येक प्राणी के जीवन को पूर्ण कर देता है। इस प्रकार संसार और हृदय (आत्मा) एक दूसरे के पूरक होते हैं।)) यह संसार एक पतंगे की भाँति क्षणभंगुर (क्षण में नष्ट होने वाला) है। दीपक के प्रकाश को देखकर पतंगा उसकी लौ में मिलने के लिए अधीर रहता है। तुम्हें इस प्रकार कार्य करते देख यह पतंगा रूपी संसार पछताता है कि अपने अहंकार को समाप्त करके वह तुम्हारे जैसा नहीं बन पाया और न ही ओरों के जीवन को प्रकाशवान् बनाने के लिए स्वयं को तुम्हारी (आत्मा रूपी दीपक) तरह जला ही पाया। जीवन की परिस्थितियों में स्वयं को बचाए रखना भी  महत्त्वपूर्ण है। हे आत्मदीप! जिस प्रकार दीपक हवा से जूझते हुए भी प्रकाश देता रहता है उसी प्रकार जीवन की परिस्थितियों से जूझते हुए भी तुम संसार को प्रकाश देने का कार्य करते रहो। 


जलते नभ में देख असंख्यक, 
स्नेहहीन नित कितने दीपक,
          जलमय  सागर  का  उर  जलता, 
          विद्युत  ले  घिरता  है  बादल!

विहँस  विहँस  मेरे  दीपक  जल!


सरलार्थ :-  आकाश में अनगिनत तारे टिमटिमाते हैं। इन तारों मे जितना सामर्थ्य है उसी के अनुसार जलकर प्रकाश देने का कार्य कर रहे हैं। कवयित्री इन्हें स्नेहहीन कहती हैं क्योंकि उनमें हमारी तरह आत्मिक भावना नहीं है। ये बिना तेल के दीपक के समान है। इनके प्रकाश में संसार में व्याप्त अज्ञानता के अंधकार को दूर करने की शक्ति नहीं है। जल से भरे सागर में भी जलने की क्रिया होती है जिसके फलस्वरूप ज्वार-भाटा आता है;  जिसके फलस्वरूप बादल का निर्माण होता है। सागर की अग्नि को बड़वाग्नि कहा जाता है। उस बादल में भी अग्नि समाई होती है। बादलों में समाई हुई विद्युत में भी संसार के अंधकार को दूर करने की शक्ति नहीं है। ((अग्नि को हम प्राणदायिनी मानते हैं वह हमारे निर्माण के पाँच तत्वों में से एक प्रमुख तत्व है।  वह बादल बरसता है जिसके प्रभाव से सृष्टि का विकास होता है।)) इस तरह सृष्टि के द्वारा दी गई समस्त चीजों में उमंग, उल्लास के साथ आगे बढ़ने की भावना समायी हुई है। वे भी अपने-अपने प्रियतम को अपनी क्षमता के अनुसार रिझाने का प्रयत्न करते हैं।( लेकिन वे सब संसार के अंधकार को दूर करने में असमर्थ है) हे आत्मा रूपी दीपक! तुम अपने पूर्ण सामर्थ्य (शक्ति, क्षमता) से खुशी के साथ जलकर परमात्मा के स्वयं तक पहुँचने का मार्ग प्रकाशित करो, संसार को आलोकित करो। इस कार्य को तुम बहुत प्रसन्नता और उत्साह के साथ करते रहो ताकि संसार को भी इसका लाभ मिले, उसका अंधकार समाप्त हो।    (समाप्त)