मनुष्यता में आईं सन्दर्भ कहानियाँ / प्रसंग

राजा रंतिदेव:-
पुराणों में राजा रंतिदेव की कथा आती है। राजा भरत के वंश में उत्पन्न रंतिदेव अपनी दानशीलता के लिए प्रसिद्ध हुए हैं। वे कुछ  भी अपने पास नहीं रखते थे जो कुछ भी उनके पास होता वह उसे बाँट देते थे। कहते हैं कि एकबार उन्हें 48 दिनों तक भोजन नहीं मिला। पूरा परिवार भूखे रहकर समय काट रहा था। 49वें दिन जब भोजन उन्हें मिला और वे उसे करने बैठे तभी एक ब्राह्मण अतिथि आ गया। राजा रंतिदेव ने उसे अपना भोजन दे दिया। ब्राह्मण के चले जाने के बाद फिर वे खाना खाने बैठे तो एक शूद्र अतिथि आ गया। रंतिदेव ने अपना भोजन फिर उसे दे दिया। राजा रंतिदेव बचे भोजन में से कुछ अंश खाने ही जा रहे थे कि एक अन्य अतिथि अपने कुछ कुत्तों के साथ आ गया और भोजन की प्रार्थना करने लगा। राजा रंतिदेव ने शेष भोजन अपने इस अतिथि की सेवा में  प्रस्तुत कर दिया। इस अतिथि के जाने के बाद पानी बचा था जैसे ही उस पानी को पीना चाहा तभी एक प्यासा चांडाल वहाँ आ गया। राजा रंतिदेव ने उसे वह पानी पिला दिया। इस प्रकार दूसरों के लिए स्वयं भूखे रहे और स्वयं को धन्य माना कि वे औरों के काम आ सके। उन्होंने देवताओं का आभार माना। कहते हैं कि ब्राह्मणशूद्रचांडाल के रूप में स्वयं ब्रह्माविष्णुमहेश अपने भक्त की परीक्षा लेने आए थे। तीनों ने अपने मूल रूप में प्रकट होकर रंतिदेव को आशीर्वाद प्रदान किया।
राजा रंतिदेव का स्वयं भूखे रहकर दूसरों की भूख मिटाना परोपकार के महान उदाहरणों में से एक है।  

महर्षि दधीचि :- 
कहा जाता है कि एक बार 'वृत्रासुरनामक राक्षस ने इन्द्रलोक पर अधिकार कर इन्द्र सहित देवताओं को वहाँ से निकाल दिया। सभी देवता सहायता लेने ब्रह्माविष्णु व महेश के पास गएलेकिन कोई भी उनकी सहायता नहीं कर पा रहा था। वृत्रासुर को किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। बाद में ब्रह्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बताया कि भू-लोक में दधीचि नाम के तेजस्वी महर्षि रहते हैं। उनकी अस्थियों से बने वज्र से वृत्रासुर को समाप्त किया जा सकता है। महर्षि दधीचि की अस्थियों में ही तप के प्रभाव से उत्पन्न तेज हैजिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता है। कहते हैं कि इन्द्र महर्षि के पास गए और सारी बातें बताकर उनसे उनकी अस्थियों का दान माँगा। महर्षि दधीचि ने बिना किसी संकोच के अपनी अस्थियों का दान देना स्वीकार कर लिया। इन्द्र द्वारा उनके अस्थियों से निर्मित वज्र के प्रयोग से वृत्रासुर का संहार हुआ।

उशीनर स्थान के राजा :-  

उशीनर के शिवि नाम के एक राजा थे जो प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और दया की भावना रखने और अपनी न्यायप्रियता के लिए प्रसिद्ध थे। वे कभी भूलकर भी किसी जीव को कष्ट नहीं होने देते थे। उनके आदेशानुसार राज्य में जीव-हत्या तथा मांसाहार निषिद्ध था।  राजा शिवि की ख्याति को सुन देवताओं के राजा इन्द्र ने अग्निदेव के साथ उनकी परीक्षा लेने का विचार किया। स्वयं ने बाज पक्षी का रूप धरा और अग्निदेव ने कबूतर का फिर वे राजा शिवि के राज्य में जा पहुँचे। राजा शिवि अपने दरबार में दरबारियों के साथ विराजमान थे। योजनानुसार उसी समय वहाँ भयभीत-सा कबूतर बाज से बचने के लिए राजा शिवि की गोद में जा गिरा और बाज़ से अपने प्राणों की रक्षा  किए जाने का आग्रह राजा से किया। बाज़ ने अपने शिकार पर अपना हक जताते हुए उसे माँगा। राजा शिवि शरण में आये पक्षी के प्राणों की रक्षा करना चाहते थे इसलिए उसे कबूतर के वजन के बराबर अपना मांस देने के लिए कहा। उन्होंने बाज़ की सहमति पर तराजू मँगाकर उसके एक पलड़े पर कबूतर को बिठाया और फिर दूसरे पलड़े पर अपने शरीर का कुछ मांस काटकर रखा। कबूतर के अनुमानित वजन से ज्यादा मांस रखे जाने पर भी कबूतर की तरफ़ का पलड़ा झुका रहा। राजा अपने शरीर के मांस के बड़े-बड़े टुकड़े रखते गए पर कबूतर का पलड़ा ही भारी बना रहा। उनके लिए कबूतर के प्राण की रक्षा स्वयं के प्राणों की रक्षा से कहीं बड़ा कार्य था।  अंततः राजा शिवि स्वयं ही दूसरे पलड़े पर जाकर बैठ गए। कहते हैं कि तब इन्द्रदेव और अग्निदेव अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुए और प्रसन्न होकर राजा शिवि को अपना आशीर्वाद प्रदान किया। राजा शिवि के सब घाव भी भर गए। 

दानवीर कर्ण :-
महाभारत के पात्र सूर्य पुत्र कर्ण अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध हैं। कर्ण  कवच और कुंडल के साथ ही पैदा हुए थे। कहा जाता है कि वह कवच अभेद्य कवच था। कर्ण के पास जो कोई भी माँगने जाता था उसे वे निराश नहीं लौटाते थे। इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन के हित के लिए उनका कवच लेे लेना चाहते थे। वे ब्राह्मण का वेष धारण करके कर्ण के पास गए और उनसे उनके कवच और कुंडल दान में माँग लिए। कर्ण को उनके पिता सूर्य ने इस इन्द्र के द्वारा ऐसा किए जाने के बारे में पूर्व में ही बता दिया था पर कर्ण ने अपने प्रण का पालन किया और द्वार पर आए ब्राह्मण को अपने कवच और कुंडल प्रसन्नता के साथ दान में दे दिए। तब से कर्ण दानवीर कहलाए। होनेवाली पीड़ा को जानने के बाद भी दूसरों के लिए अपने प्राण को संकट में डाल देनेवाले दानवीर कर्ण जैसे लोग इस धरती पर हुए हैं। ऐसे लोगों को पाकर यह धरती भी धन्य हो गई है।  

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अध्याय : मनुष्यता