गाँधीगीरी समस्याओं से निपटने का प्रभावशाली अस्त्र है। - पक्ष

GANDHIGIRI SAMASYAON SE NIPTANE KA PRABHAVSHALEE ASTRA HAI

     गाँधीगीरी एक ऐसा शब्द है जो हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी के सिद्धान्तों से जुड़ा हुआ है। गाँधी जी के अनुसार अहिंसा परम घर्म है, सत्य का पालन करना चाहिए, कोई एक गाल पर मारे तो दूसरा गाल भी आगे कर देना चाहिए, किसी का बुरा चाहना बुरी बात है और बुरा होते हुए देखना और भी बुरी बात है, हमें कुटीर उद्योगों को अपनाकर स्वावलम्बी बनना चाहिए आदि अनेक सामाजिक जीवन की व्यावहारिक  शिक्षाएँ हैं, जिनसे मानव का सामाजिक जीवन उन्नत होता है।

      गाँधीजी आज से 50 साल पूर्व तक थे। उस समय  देश का वातावरण आज की अपेक्षा भिन्न था। आज के इस भिन्न वातावरण में भी गाँधी जी के विचारों की महता कम नहीं हुई है। जिस प्रकार भगवान कृष्ण, बुद्ध, महावीर आदि के विचार आज भी मनन किए जाते हैं उसी प्रकार गाँधीजी के विचार भी है। आदर्श कभी मरते नहीं हैं। वे हर काल में महत्व पाते हैं, वे शाश्वत हैं मनुष्य बुद्धि परिवर्तनशील है और मनुष्य का मन उससे भी अधिक  परिवर्तनशील है। स्थिति जब तक ठीक है जब तक इन्हें संयम के बंधन में रखा जाए पर जब संयम का बंधन टूट जाता है तब स्थिति खराब हो जाती है। हमारे दृष्टाओं ने बहुत पहले ही उन तत्वों का पता लगा लिया था जो मनुष्य के पतन के लिए  उत्तरदायी हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया आदि वे विकार है जो किसी भी प्राणी में स्वाभाविक रूप में विद्यमान रहते हैं। जो मनुष्य अपने मन को इनके भरोसे छोड़ देता है वह ही पतन को प्राप्त होता है। और जो संयम के मार्ग पर चलकर मन को हम  अंकुशित कर लेता है वह ही सामाजिक कहलाता है और  प्रशंसा प्राप्त करता है।

      आज हम चारों तरफ  अशांति का वातावरण देख रहे है। इस  अशांति का कारण है दूसरे की थाली में घी ज्यादा दिखाई देना, इस  अशांति का कारण है छछूंदर के सिर में चमेली का तेल होना और ऐसा होता देख लोगों का  छछूंदर बनना। इस अशांति का कारण है बिन थाली के बैंगन होने जैसा व्यवहार करना या फिर बिन पैंदे का लोटा बन जाना। लूट, खसोट, भ्रष्टाचार, घूसखोरी, दादागिरी, आतंकवाद, भाषावाद, क्षेत्रीयवाद, जातिवाद, बेरोजगारी, मंहगाई आदि अनेक समस्याएँ हमारे समक्ष सुरसा की तरह मुँह खोलें खड़ी हैं। इन सबका एक ही कारण है मन का विकारों से ग्रसित हो जाना। गाँधीजी के बताए अनुसार सत्य का पालन करें, मानव जीवन के  कर्त्तव्यों का पालन करें, एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करें, प्राणिमात्र के प्रति दया की भावना रखें और उनसे प्रेम रखें, अपरिग्रह को महत्व दें तो ये सारी समस्याएँ अवश्य ही समाप्त हो जाएँगी। गाँधीगीरी वह प्रभावशाली अस्त्र है जिससे हमारे देश की हजारों साल की गुलामी की परंपरा का खात्मा हुआ, बड़े से बड़े हथियारों के मुँह बंद हुए और हम स्वाधीन हुए। उस काल के मुकाबले आज का समय तुलनात्मक दृष्टि से कहीं अच्छा है

      समस्याओं की शुरूआत मानव के द्वारा स्वार्थ को महत्व दिए जाने से होती है और गाँधीजी ने निःस्वार्थ सेवा का संदेश दिया है; गाँधीजी ने अहिंसा को परमधर्म यों ही नहीं माना बल्कि उसके पीछे भावना है कि शक्ति का प्रयोग सर्जन के लिए हो, विध्वंस के लिए नहीं क्योंकि विध्वंस विकास में रूकावट पैदा करता है। ऐसे कार्य जिनसे दूसरों का अहित होता है हिंसा है और गाँधीजी ने इसका निषेध किया है। गाँधीजी के बताए मार्ग का यदि सब अनुसरण करें तो  निश्चय ही हम रामराज्य की अवधारणा को साकार कर सकते हैं। एक विकार-रहित समाज और देश का निर्माण कर सकते हैं। धन्यवाद  



गाँधीगीरी समस्याओं से निपटने का प्रभावशाली अस्त्र नहीं है। - विपक्ष 

क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
उसका क्या, जो विषहीन, विनीत, सरल हो।
      बच्चा ज्ञान लेकर पैदा नहीं होता, चेतना लेकर पैदा होता है; सीखने की क्षमता लेकर पैदा होता है। पैदा होने के बाद से ही हम उसे सिखाने लगते हैं। एक दीवार उसके सामने खड़ी  की जाती है यह दीवार होती है हमारे धर्म की; हमारी परंपराओं की कि बच्चे को वही सिखाया जाए जो हम चाहते हैं, कि बच्चा वैसा ही बने जैसा हम चाहते हैं। उसके विकास की इस प्रक्रिया में हम उसकी उत्सुकता को कुठित कर किसी  विशेष दायरे में बाँधने का उपक्रम करते हैं। जीवन की ऐसी शुरुआत, इस समय का बीजारोपण बच्चे के जीवन की  दिशा तय कर देता है और मेरे हिसाब से गाँधीजी ने इस विषय पर ज्यादा कुछ नहीं कहा है।

      जब हमने बच्चे के विकास की प्रक्रिया को कुंद किया तो ऐसा ही हुआ जैसे किसी फूल को उसके स्वाभाविक रूप से खिलने की गति को रोक दिया। वह बच्चा अब अपनी आँखो से नही देखता बल्कि उस  चश्में से देखता है जिसे हमने उसके मन में बिठा दिया है। और ऐसी अवस्था में गाँधीजी का कोई विचार उसे कैसे और कितना प्रभावित करेगा इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

      एक नगर में एक कुआँ खोदा गया। पानी निकला, मीठा था। राजा के परिवार और मंत्री के अलावा सभी ने उस पानी को पिया। कुछ देर बाद पता लगा कि पूरा नगर ही पागल हो गया है और सब के सब पागल राजा को पागल समझने लगे। नगर के सारे पागल यही कहने लगे कि राजा पागल है उसे गद्दी से उतार हमारे जैसा समझदार नेता बिठाओ। नगर के पागलों ने राजा का महल चारों तरफ से घेर लिया। राजा ने अपने मंत्री से इस समस्या का उपाय पूछा। मुत्री ने कहा कि अब हमें भी महल की सुरंग से बाहर जाकर उस कुएँ का पानी पी लेना चाहिए ताकि हम भी उन जैसे हो जाएँ राजा ने ऐसा ही किया। यहाँ जो भी बच्चा आता है वह राजा ही होता है शायद माता-पिता अपनी संतान को इसलिए ही राजा बेटा कहती है। सच्चाई यही है कि हमारे देश में स्थित पागलपन को गाँधीजी का कोई सिद्धांत खत्म नहीं कर सकता यह तभी खत्म होगा जब हम भी पागलपन की भाषा सीखें।

      हम विरोध नहीं करते, जो करते हैं उन्हें सुनना नहीं चाहते क्योंकि विरोध करना हमें बचपन से ही सिखाया नहीं जाता। सोचने के ढंग को तो बचपन में ही कुंठित कर दिया जाता है। अपेक्षाओं का ऐसा जाल पहना दिया जाता है जिससे उम्रभर व्यक्ति निकल ही नहीं पाता है। यदि उसके मन को वैज्ञानिक की दृष्टि से विकसित कर दिया तो वह धर्म और परमात्मा को मानने के लिए तैयार नहीं होता; यदि उसे आध्यात्मिक बना दिया तो वह वैज्ञानिक-सोच के लिए तैयार नहीं है। ऐसे में समस्याएँ वहीं की वहीं रह जाती हैं। वातावरण बुरे से और बुरा होता जाता है। मानव मस्तिष्क एक दूसरे के विरोध में खड़ा हो जाता है; मर्यादाएँ टूट जाती हैं और ऐसी स्थिति में गांधीगिरी से नुकसान ही होता है। यदि ऐसा नहीं होता तो आजादी के बाद हमारा  देश भ्रष्टाचार में अव्वल नहीं होता, हिंसा का तांडव नहीं होता, लोग मनुष्यता का चोला उतार नंगे नहीं होते, मानव और मानव के बीच में दंगे नहीं होते। धन्यवाद